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इससे कुछ अर्वाचीन ग्रन्थगत उल्लेखों के आधार से कुछ महानुभावों की जो यह धारणा बन गयी है कि गृहस्थों को सिद्धान्त-ग्रन्थों के रहस्य के अध्ययन का अधिकार नहीं है, वह निर्मूल सिद्ध होती है। श्रावकों के छह आवश्यकों में स्वाध्याय को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। स्वयं षट्खण्डागमकार ने तीर्थकर-नाम-गोत्र के बन्धक सोलह कारणों में 'अभीक्ष्ण-अभीक्ष्णज्ञानोपयोग युक्तता' को स्थान दिया है।
उसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार कहते हैं कि 'अभीक्ष्ण-अभीक्ष्ण' नाम बहुत वार का है, 'ज्ञानोपयोग' से भावश्रुत और द्रव्यश्रुत अपेक्षित है, उसके विषय में निरन्तर उद्य क्त रहने से तीर्थकर नामकर्म बंधता है। ____ मूलाचार के रचयिता वट्टकेराचार्य विपाकविचय धर्मध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ध्याता विपाकविचय धर्मध्यान में जीवों के द्वारा एक व अनेक भवों में उपाजित पुण्य-पाप कर्मों के फल का तथा उदय, उदीरणा, संक्रम, बन्ध और मोक्ष इन सबका विचार किया करता है । सिद्धान्त-ग्रन्थों में इन्हीं उदय, उदीरणा और संक्रम का विचार किया गया है।
ऊपर धवलाकार ने मोक्षाभिलाषी भव्य जीवों के लिए जो प्रस्तुत षट्खण्डागम के अभ्यास के लिए प्रेरित किया है वह कितना महत्त्वपूर्ण है, यह विचार करने की बात है । षट्खण्डागम और कषायप्राभूत जैसे महत्त्वपूर्ण कर्मग्रन्थों के अभ्यास के बिना क्या मुमुक्षु भव्य जीव द्वारा कर्मबन्ध क्या व कितने प्रकार का है, आत्मा के साथ उन पुण्य-पाप कर्मों का सम्बन्ध किन कारणों से हुआ, वे कौन-से कारण हैं कि जिनके आश्रय से उन कर्मों का क्षय किया जा सकता है, तथा जीव का स्वभाव क्या है, इत्यादि प्रकार से संसार व मोक्ष के कारणों को जाना जा ‘सकता है ? नहीं जाना जा सकता है। इसके अतिरिक्त संसार व मोक्ष के कारणों को जब तक नहीं समझा जायेगा तब तक मोक्ष की प्राप्ति भी सम्भव नहीं है । इसीलिए धवलाकार ने सभी मुमुक्षु जनों से सिद्धान्त-ग्रन्थों के अभ्यास की प्रेरणा की है।
आगे जाकर धवलाकार ने वाचनाशुद्धि के प्रसंग में वक्ता और श्रोता दोनों के लिए द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धि का विस्तार से विचार किया है। वहाँ भी
१. (क) दिणपडिम-वीरचरिया-तियालजोगेसु णत्थि अहियाए।
सिद्धत रहस्साण वि अज्झयणे देसविरदाणं ।।-वसु० श्राव० ३१२ (ख) श्रावकोवीरचर्याहःप्रतिमातापनादिषु ।
स्यान्नाधिकारी सिद्धान्तरहस्याध्ययनेऽपि च ।।—सागारध० ७/५० (ग) आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम् ।
न वाचनीयं पुरत: सिद्धान्ताचारपुस्तकम् ।।-नीतिसार ३२ २. बन्धस्वामित्व विचय, सूत्र ३६-४२, पु० ८ । ३. अभिक्खणमभिक्खणं णाम बहुवारमिदि भणिदं होदि। णाणोवजोगो त्ति भावसुदं
दव्वसुदं वावेक्खदे । तेसु मुहम्मुहुजुत्तदाए तित्थयरणामकम्म बज्झइ ।-धवला पु०
८, पृ० ६१ ४. एयाणेयभवगयं जीवाणं पुण्ण-पावकम्मफलं ।
उदओदीरण-संकम-बंधं मोक्खं च विचिणादि ।।—मूला० ५-२०४
षट्सण्डागम : पीठिका | ११
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