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________________ उन्होंने उक्त प्रकार से सिद्धान्त के अध्ययन का प्रतिषेध नहीं किया।' संसार व मोक्ष के उन कारणों का ध्यानशतक में संस्थानविचय धर्मध्यान के प्रसंग में विस्तार से किया गया है। इस प्रसंग से सम्बद्ध उसकी कितनी ही गाथाओं को वीरसेनाचार्य ने अपनी उस धवला टीका में उदधृत भी किया है।' आचार्य गुणभद्र ने शास्त्रस्वाध्याय को महत्त्व देते हुए चंचल मन को मर्कट मानकर उसे प्रतिदिन श्रुतस्कन्ध के ऊपर रमाने की प्रेरणा की है तथा इस प्रकार से श्रुत के अभ्यास में मन के लगाने वाले को विवेकी कहा है। . ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन आर्ष-ग्रन्थों में परमागम के अभ्यास के विषय में संयत-असंयतों का कहीं कुछ भेद नहीं किया गया है। इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार की विशेषता जिस आचार्य परम्परा का उल्लेख धवलाकार ने जीवस्थान-सत्प्ररूपणा में व वेदनाखण्डगत कृति अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में किया है उसका उल्लेख अन्यत्र तिलोयपण्णत्ती, हरिवंशपुराण, जंबूदीवपण्णत्ती एवं इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार आदि में भी किया गया है। इनमें से इन्द्रनन्दि-श्रुतावतार में जो विशेषता दृष्टिगोचर होती है उसे यहाँ प्रकट किया जाता है- यहाँ 'लोहार्य' के स्थान में उनका 'सुधर्म' (श्लोक ७३) नामान्तर पाया जाता है। सम्मिलित सबका काल-प्रमाण ६८३ वर्ष ही है । यहाँ आचार्यों के नामों में जो कुछ थोड़ा-सा भेद देखा जाता है उसका कुछ विशेष महत्व नहीं है । प्राकृत शब्दों का संस्कृत में रूपान्तर करने में तथा १. धवला पु० ६, पृ० २५१-५६ २. ध्यानशतक ५४-६० ३. ध्यानशतक की प्रस्तावना पृ० ५६-६२ में 'ध्यानशतक और धवला का ध्यानप्रकरण' शीर्षक अनेकान्तात्मार्थप्रसव-फलभारातिविनते वचःपर्णाकीर्णे विपुलनय-शाखाशतयुत्ते । समुत्त ङ्गे सम्यक् प्रततमति-मूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान् रमयतु मनोमर्कटममुम् ।। -आत्मानुशासन १७० ५. ति० प० ४,१४०४-६२ ६. ह० पु० ६६, २२-२५; यहाँ श्लोक २५ में जिन नामों का उल्लेख किया गया है वे इ० श्रुतावतार से कुछ मिलते-जुलते इस प्रकार हैंमहातपोभृद् विनयंधरश्रुतामृषिश्रुति (?) गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्तसंज्ञको गुणैः स्वमर्हबलिरप्यधात् पदम् ।।२।। ७. जं० दी०प० १, ८-१७ ८. इ० श्रुतावतार ६६-८५; धवला से विशेष विनयधरः श्रीदत्तः शिवदत्तोऽन्योऽर्हद्दत्तनामते । आरातीया यतयस्ततोऽभवन्नङ्ग-पूर्वदेशधराः । ८४।। सर्वांग-पूर्वदेशैकदेशवित् पूर्वदेशमध्यगते। श्रीपुण्ड्रवर्धनपुरे मुनिरजनि ततोहबल्याख्यः ।।८।। १२ / षट्क्षण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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