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होते हैं; किन्तु अनन्त ही उत्पन्न होते हैं ।
निगोदजीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं । एक शरीर में स्थित बादर निगोदजीव उस शरीर में स्थित अन्य बादर-निगोद जीवों के साथ परस्पर में समवेत व एक दूसरे के सब अवयवों से स्पष्ट होकर रहते हैं। ये बादर-निगोदजीव मूली व थूहर आदि प्रत्येकशरीर जीवों के रूप में रहते हैं। इन मूली आदि के शरीर उन बादर निगोदजीवों के योनिभूत हैं। ___इसी प्रकार एक शरीर में स्थित सूक्ष्म-निगोदजीव परस्पर में समवेत व एक दूसरे के सभी अवयवों से स्पष्ट होकर रहते हैं । इन सूक्ष्म-निगोदजीवों की योनि नियत नहीं है; उनकी योनि जल, स्थल व आकाश में सर्वत्र उपलब्ध होती है। ____ इन निगोद जीवों में ऐसे अनन्तजीव हैं जिन्हें मिथ्यात्व आदिरूप संक्लिष्ट परिणाम से कलुषित रहने के कारण कभी सपर्याय नहीं प्राप्त हुई । इसे स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यदि ऐसे कलुषित परिणामवाले अनन्त जीव न होते तो संसार में भव्य जीवों के अभाव का प्रसंग अनिवार्य प्राप्त होता । और जब भव्य जीव न रहते तब उनके प्रतिपक्षभूत अभव्य जीवों के भी अभाव का प्रसंग प्राप्त होनेवाला था। इस प्रकार से संसारी जीवों का ही अभाव हो सकता था। इससे सिद्ध है कि ऐसे संक्लिष्ट परिणामवाले अनन्त जीव हैं, जिन्होंने अतीत काल में कभी त्रसपर्याय को प्राप्त नहीं किया। इसे आगे और भी स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि जिनेन्द्रदेव द्वारा देखे गये अथवा प्ररूपित एक ही निगोदशरीर में जो अनन्त जीव रहते हैं वे समस्त अतीत काल में सिद्ध हुए जीवों से अनन्तगुणे हैं। इससे सिद्ध है कि सब अतीत काल के द्वारा एक निगोदशरीर में स्थित जीव ही सिद्ध नहीं हो सकते हैं। आगे वे कहते हैं कि आय से रहित जिन संख्याओं की व्यय के होने पर समाप्ति होती है उनका नाम संख्यात व असंख्यात है। किन्तु आय से रहित जिन संख्याओं का संख्यात व असंख्यातवें रूप में व्यय के होने पर भी कभी व्युच्छेद नहीं होता उनका नाम अनन्त है। इसके अतिरिक्त सब जीवराशि अनन्त है, इसलिए उसका व्युच्छेद नहीं हो सकता; अन्यथा अनन्तता के विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है।
इन निगोदों में स्थित जीव दो प्रकार के होते हैं-चतुर्गतिनिगोद और नित्यनिगोद । जो निगोद जीव देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर फिर से निगोदों में प्रविष्ट हुए हैं व वहाँ रह रहे हैं उनका नाम चतुर्गतिनिगोद है तथा जो सदा काल निगोदों में ही रहते हैं वे नित्यनिगोद कहलाते हैं । अतीत काल में त्रसपर्याय को प्राप्त हुए जीव यदि अधिक से अधिक हों तो वे अतीत काल से असंख्यातगुणे ही होते हैं, जबकि एक ही निगोद शरीर में स्थित जीव अतीत काल में सिद्ध होने वाले जीवों से अनन्तगुणे होते हैं। इससे सिद्ध है कि ऐसे अनन्त निगोद जीव हैं जिन्होंने कभी त्रसपर्याय को प्राप्त नहीं किया। __ प्रकृत शरीरीशरीर प्ररूपणा में इन आठ अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है-- सत् प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम, और अल्पबहुत्वानुगम । इनमें सत्प्ररूपणा के आश्रय से ओघ और आदेश का निर्देश करते हुए कहा गया है कि ओघ की अपेक्षा जीव दो शरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीर से रहित हुए हैं (१२६-३१)। विग्रह गति में वर्तमान चारों गतियों के जीव तैजस और कार्मण इन दो शरीरों से युक्त
मूलग्रन्थनत विषय का परिचय | १२७
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