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________________ प्राभृतादि विविध मूल ग्रन्थों के रचियता आचार्य कुन्दकुन्द किसी ग्रन्थ विशेष पर गद्यात्मक टीका भी लिख सकते हैं ? ४ इन्द्रनन्दिश्रुतावतार के अनुसार परिकर्म नाम की यह टीका षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर लिखी गई है । किन्तु धवला में उसका उल्लेख चौथे वेदनाखण्ड और पांचवें वर्गणाखण्ड में भी अनेक बार किया गया है।' इसके अतिरिक्त उसका तीसरा खण्ड जो 'बन्धस्वामित्व विचय' है, जिस पर टीका लिखे जाने का निर्देश इन्द्रनन्दी द्वारा किया गया है, उसमें कहीं भी धवलाकार द्वारा परिकर्म का उल्लेख नहीं किया गया। वह पूरा ही खण्ड गणित से अछूता रहा है, वहाँ ज्ञानावरणादि मूल और उत्तर प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों का विचार किया गया है । ५. समयसार में वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक, अध्यवसानस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बन्धस्थान, उदयस्थान, मार्गणास्थान, स्थितिबन्धस्थान, संक्लेशस्थान, विशुद्धिस्थान, जीवस्थान और गुणस्थान ये जीव के नहीं हैं, ये सब पुद्गल के परिणाम हैं, ऐसा कहा गया है। ( गा० ५०-५५ ) आगे इतना मात्र वहाँ स्पष्ट किया गया है कि वर्ण को आदि लेकर गुणस्थानपर्यन्त ये सब भाव निश्चय नय की अपेक्षा जीव के नहीं हैं, व्यवहार की अपेक्षा वे जीव के होते हैं । जीव के साथ इनका सम्बन्ध दूध और पानी के समान है, इसलिए वे जीव के नहीं हैं, क्योंकि जीव उपयोग गुण से अधिक है (गाथा ५६-५७) । यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम में उपर्युक्त वर्ग वर्गणादिकों को प्रमुख स्थान प्राप्त है, गुणस्थान और मार्गणास्थानों पर तो वह पूर्णतया आधारित है । ऐसी परिस्थिति में यदि कुन्दकुन्दाचार्य उस पर टीका लिखते हैं तो क्या वे समयसार में ही या पंचास्तिकाय आदि अपने अन्य किसी ग्रन्थ में यह विशेष स्पष्ट नहीं कर सकते थे कि वे सब भाव भी ज्ञातव्य हैं व प्रथम भूमिका में आश्रयणीय हैं ? अमृतचन्द्र सूरि ने भी 'समयसार - कलश' (१-५) में यही स्पष्ट किया है कि जो पूर्व भूमिका में अवस्थित है उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्बन देनेवाला है, पर जो परमार्थ का अनुभव करने लगे हैं उनके लिए व्यवहारनय कुछ भी नहीं है, वह सर्वथा हेय है । इन प्रश्नों पर विचार करते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्द ने ने षट्खण्डागम पर 'परिकर्म' नाम की कोई टीका नहीं लिखी है । परिकर्म का उल्लेख धवला को छोड़कर अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता ।" यह भी आश्चर्यजनक है कि धवला में जितने बार भी परिकर्म का उल्लेख किया गया है उनमें कहीं भी उसका उल्लेख षट्खण्डागम की टीका या उसकी व्याख्या के रूप में नहीं किया गया। इसके विपरीत एक-दो बार तो वहाँ उसका उल्लेख सूत्र के रूप में किया गया है । अनेक बार उल्लेख करते हुए भी कहीं भी उसके १. पु० ६, पृ० ४८ व ५६; पु० १०, पृ० ४८३; पु० १२, पृ० १५४; पु० १३, पृ० १८, २६२,२६३ व २६६ तथा पु० १४, पृ० ५४,३७४ व ३७५ २. उसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ती के जिस गद्यभाग में किया गया है वह धवला और तिलोयपण्णत्ती में समान रूप से पाया जाता है। वह सम्भवतः धवला से ही किसी के द्वारा पीछे तिलोयपण्णत्ती में योजित किया गया है। देखिए धवला पु० ४, पृ० १५२ और ति० प० २, पृ० ७६४-६६ Jain Education International षट्खण्डागम पर टीकाएँ / ३३१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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