________________
हुआ जो सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है।'
इसी प्रकार आगे भी उक्त गुणितकौशिक के शेष लक्षणो को दोनों ग्रन्थों में समान रूप से निर्दिष्ट किया गया है।
१०. १० ख० में आगे द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की जघन्य वेदना किसके होती है, इसका विचार करते हुए, वह चूंकि क्षपित कौशिक के होती है इसलिए, उसके लक्षणों को भी वहाँ प्रकट किया गया है।' ___ कर्मप्रकृति में भी जघन्य प्रदेशसंक्रम के स्वामी के प्रसंग में उस क्षपितकौशिक के लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। ___ ये क्षपितकौशिक के लक्षण भी दोनों ग्रन्थों में समान रूप में ही उपलब्ध होते हैं। _ विशेषता यह रही है कि क० प्र० में संक्षेप से यह निर्देश कर दिया गया है कि पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन कर्मस्थितिकाल तक सूक्ष्म निगोद जीवों में परिभ्रमण कर जो भव्य के योग्य जघन्य प्रदेशसंचय को करता हुआ उन सूक्ष्म निगोदजीवों में से निकल कर सम्यक्त्व व देशविरति आदि के योग्य त्रसों में उत्पन्न हुआ है, इत्यादि।
मूलगाथाओं में उस क्षपितकर्मांशिक के जिन लक्षणों का निर्देश नहीं किया है उनका उल्लेख उनकी टीका में मलयगिरि सूरि के द्वारा प्रायः उन्हीं शब्दों में कर दिया गया है जिनका उपयोग १० ख० में किया गया है। उदाहरण के रूप में उनमें से कुछ का मिलान इस प्रकार किया जा सकता है
"एवं संसरिदूण बादरपुढविजीवपज्जत्तएस उववण्णो। अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो। अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो पुवकोडाउएसु मणुसेसुववण्णो। सव्वल हुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अटुवस्सीओ। संजमं पडिवण्णो। तत्थ य भवट्ठिदि पुवकोडिं देसुणं संजममणुपाल इत्ता थोवावसेसे जीविदव्वए त्ति मिच्छत्तं गदो।"---ष०ख० ४,२,४,५६-६१
"सूक्ष्मनिगोदभ्यो निर्गत्य बादरपृथ्वीकायेषु मध्ये समुत्पन्नस्ततोऽन्तमुहूर्तेन कालेन विनिर्गत्य मनुष्येषु पूर्वकोट्यायुष्केषु मध्ये समुत्पन्नः । तत्रापि शीघ्रमेव माससप्तकान्तरं योनिविनिर्गमनेन जातः । ततोऽष्टवार्षिक: सन् संयम प्रतिपन्नः। ततो देशोनां पूर्वकोटी यावत् संयममनुपाल्य स्तोकावशेषे जीविते सति मिथ्यात्वं प्रतिपन्नः ।" -क०प्र० मलय० वृत्ति, पृ० १६४२
११. १० ख० में पूर्वोक्त वेदना अनुयागद्वार के १६ अवान्तर अनुयोगद्वारों में से सातवें वेदनाभावविधान अनुयोगद्वार की तीन चूलिकाओं में से प्रथम चूलिका के प्रारम्भ में दो गाथा सूत्रों द्वारा निर्जीर्यमाण कर्मप्रदेश और उस निर्जरा सम्बन्धी काल के क्रम को दिखलाते हुए सम्यक्त्वोत्पत्ति आदि ग्यारह गुणश्रेणियों की प्ररूपणा की गई है । वे गाथासूत्र ये हैं---
सम्मत्तुप्पत्ती वि य सावय-विरदे अणंतकम्मसे।
दसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते॥ १. बायरतसेसु तकालमेवमंते य सत्तमखिईए। -क० प्र० (सं० क०) गा० ७६ (पूर्वार्ध) २. ष० ख० सूत्र ४, २,४,२२-३२ (पु०१०) व क० प्र० (सं० क०) गा० ७६-७८
(इतना विशेष है कि ष० ख० में 'गुणित कर्माशिक' का उल्लेख नहीं किया गया है, जबकि
क० प्र० में उसका उल्लेख किया गया है) ३. ष० ख० सूत्र ४,२,४,४८-७५ (पु० १०) ४. क० प्र० (सं० क०) गा० ६४-६६ । १६२ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org