SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखज्जा। तविवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ ॥-पु० १२, पृ० ७८ ये दोनों गाथाएँ साधारण पाठभेद के साथ क० प्र० में इस रूप में उपलब्ध होती हैं सम्मत्तुप्पासावय-विरए संजोयणाविणासे य। दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगुवसंते ॥ खवगे य खीण मोहे जिणे य दुविहे असंखगुणसेढी। उदओ तस्विवरीओ कालो संखेज्जगुणसेढी॥ -क० प्र० उदय गा० ८-६, पृ० २६१ ष० ख० में जहाँ 'अणंतकम्मसे' पाठ है वहाँ क०प्र० में उसके स्थान में 'संजोयणाविणासे' पाठ है । उसका अर्थ मलयगिरि सूरि ने अनन्तानुबन्धियों का विसंयोजन ही किया है । श्वे० ग्रन्थों में प्रायः अनन्तानुबन्धी के लिए 'संयोजना' शब्द व्यवहृत हुआ है । ___ इसी प्रकार आगे गा० ६ में 'जिणे य दुविहे' ऐसा निर्देश करके उससे सयोगी और अयोगी दोनों केवलियों की विवक्षा की गई है। ष० ख० में वहाँ यद्यपि 'जिणे' के विशेषण स्वरूप 'दुविहे' पद का उपयोग न करके उसके स्थान में 'णियमा' पद का उपयोग किया गया है, फिर भी ग्रन्थकार को 'जिणे' पद से दो प्रकार के केवली जिन विवक्षित रहे हैं । उन्होंने स्वयं ही आगे इन गाथासूत्रों के अभिप्राय को जिन २२ सूत्रों द्वारा स्पष्ट किया है उनमें केवली के इन दो भेदों को स्पष्ट कर दिया हैअधः प्रवृत्तकेवली संयत और योगनिरोधकेवली संयत । १२. ष० ख० के पांचवें वर्गणा' खण्ड में जो 'बन्धन' अनुयोगद्वार है उसमें बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार की प्ररूपणा की गई है। उनमें बन्धनीय-बँधने योग्य, वर्गणाओं-की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की गई है इसीलिए इस खण्ड के अन्तर्गत स्पर्श कर्म और प्रकृति इन अन्य अनुयोगद्वारों के होने पर भी उसका नाम 'वर्गणा' प्रसिद्ध हुआ है । क० प्र० में भी प्रथम बन्धनकरण के प्रसंग में उन वर्गणाओं की प्ररूपणा की गई है। वर्गणाओं की वह प्ररूपणा इन दोनों ग्रन्थों में लगभग समान ही है। थोड़ा-सा जो उनमें शब्दभेद दिखता है वह नगण्य है। दोनों ग्रन्थों में उनके नामों का निर्देश इस प्रकार किया गया हैष० ख० क० प्र० १. एक प्रदेशिक परमाणु पु० द्रव्यवर्गणा परमाणु-संख्येय-असंख्येय२. संख्यातप्रदेशिक अनन्तप्रदेश-वर्गणा ३. असंख्यातप्रदेशिक (अग्राह्य) ४. अनन्त प्रदेशिक १. अग्रहणवर्गणा ५. आहारद्रव्यवर्गणा २. आहारवर्गणा १. ये दोनों गाथाएँ आचार-नियुक्ति (२२२-२३) में भी उपलब्ध होती हैं। २. चतुर्थी संयोजनानामनन्तानुबन्धिनां विसंयोजने।-क० प्र० मलय० वृत्ति गा० ८ (उदय) ३. आचा० नि० में 'जिणे य सेढी भवे असंखिज्जा' पाठ है। ४. दशमी सयोगिकेवलिनि । अयोगिकेवलिनि त्वेकादशीति ।-मल ०६ पट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy