SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसका एक गुण स्निग्ध, दो गुण स्निग्ध और तीन गुण स्निग्ध अन्य परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। उसी दो गुण स्निग्धवाले परमाणु का अन्य पाँच गुण स्निग्ध व छह सात आदि संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त गुणवाले किसी भी परमाणु के साथ बन्ध नहीं होता है। चार गुण स्निग्ध का छह गुणस्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध होता है, अन्य किन्हीं के साथ नहीं होता है। इस प्रकार दो-दो गुण अधिक ( तीन-पांच, चार-छह, पाँच-सात आदि) परमाणुओं में उस बन्ध को समझना चाहिए ।" ष० ख० में भी परमाणुओं व स्कन्धों में होनेवाले इस बन्ध की प्ररूपणा की गई है । वहाँ पूर्वनिर्दिष्ट बन्धन अनुयोगद्वार में सादिविस्रसाबन्ध का विचार करते हुए प्रथम तो समान स्निग्धता और रूक्षता के प्रभाव में बन्ध का सद्भाव दिखलाया गया है, तत्पश्चात् समान स्निग्धता और रूक्षता के होने पर उनमें परस्पर बन्ध का निषेध भी किया गया है । इसका अभिप्राय यह है कि स्निग्ध परमाणुओं का रूक्ष परमाणुओं के साथ और रूक्ष परमाणुओं का स्निग्ध परमाणुओं के साथ बन्ध होता है— स्निग्ध स्निग्ध परमाणुओं में और रूक्ष रूक्ष परमाणुओं में समानता रहने से बन्ध नहीं होता । इसी अभिप्राय को आगे गाथासूत्र द्वारा स्पष्ट किया गया है। आगे जाकर वही सूत्र पुनः अवतरित हुआ है - वेमादा गिद्धदा वेमादा ल्हुक्खता बंधो। ३५ इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र के पूर्वोक्त अर्थ के अनुसार स्निग्ध पुद्गलों का स्निग्ध पुद्गलों के साथ और रूक्ष पुद्गलों का रूक्ष पुद्गलों के साथ गुणाविभाग प्रतिच्छेदों से समान अथवा असमान होने पर भी बन्ध के अभाव का प्रसंग प्राप्त होने पर उनमें भी बन्ध होता है; यह जतलाने के लिए इसका दूसरा अर्थ कहा जाता है । तदनुसार पूर्वोक्त अर्थ से उसका भिन्न अर्थ करते हुए उन्होंने कहा है कि 'मादा' (मात्रा) का अर्थ अविभाग प्रतिच्छेद है । इस प्रकार जिस स्निग्धता में दो मात्रा अधिक अथवा हीन होती हैं। वह स्निग्धता बन्ध की कारण है । अभिप्राय यह है कि स्निग्ध पुद्गल दो अविभागप्रतिच्छेदों से अधिक अथवा दो अविभाग प्रतिच्छेदों से हीन स्निग्ध पुद्गलों के साथ बन्ध को प्राप्त होते हैं, किन्तु तीन आदि अविभाग प्रतिच्छेदों से अधिक अथवा तीन पुद्गलों के साथ वे बन्ध को प्राप्त नहीं होते । यही अभिप्राय रूक्ष पुद्गलों के विषय में भी व्यक्त किया गया है । आगे इस अर्थ के निर्णय की पुष्टि एक अन्य गाथासूत्र द्वारा की गई है। 3 यह गाथासूत्र तत्त्वार्थवार्तिक में भी 'उक्तं च' के साथ इस प्रसंग में उद्धृत है । " पर त० वा० में उसके चतुर्थ चरण में उपयुक्त 'विसमे समे' का अर्थ जहाँ समान जातीय और असमान जातीय विवक्षित रहा है वहाँ धवला में उसके अर्थ में गुणविभाग- प्रतिच्छेदों से १. त० सूत्र ५, ३३-३६ २. ष० ख० ५,६, ३२-३४ ( पु० १४, पृ० ३०-३१ ) ३. सूत्र ३५-३६ (पु० १४, पृ० ३२-३३) । पूर्व में धवलाकार ने 'वेमादा' में 'वि' का अर्थ विगत और 'मादा' का अर्थ सदृश किया था, तदनुसार 'वेमादा' का अर्थ विसदृश रहा है। ४. त० वा० ५,३५,१ ( पृ० २४२ ) १७६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy