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(७) षट्खण्डागम में मूल ग्रन्थकर्ता के समक्ष कुछ मतभेद नहीं रहा। पर प्रज्ञापना में भगवान् महावीर के समक्ष भी मतभेद रहा है, ऐसा अभिप्राय प्रकट किया गया है। यथा
प्रज्ञापना में १८वा 'कायस्थिति' पद है। उसमें निर्दिष्ट २२ अर्थाधिकार में छठा अर्थाधिकार 'वेद' है । वहाँ वेद के प्रसंग में गौतम प्रश्न करते हैं कि "भगवन् ! स्त्रीनेद का कितना काल है ?" उत्तर में महावीर कहते हैं, "हे गौतम ! एक आदेश से उसका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक एक सौ दस (११०) पल्योपम है। ____एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक अठारह पल्योपम है।
एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक चौवह पल्योपम है। ___एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक सौ पल्योपम है।
एक आदेश से वह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक पल्योपमपृथक्त्व है।" (सूत्र १३२७)
यहाँ यह विशेष विचारणीय है कि क्या भगवान महावीर के समक्ष भी स्त्रीवेद के कालविषयक उपर्युक्त पाँच मतभेद सम्भव हैं, जब कि वे सर्वज्ञ व वीतराग थे। यदि उस विषय में उस समय कछ मतभेद भी रहा हो तो सर्वज्ञ महावीर उनमें से किसी एक मत को यथार्थ बतलाकर शेष चार को असमीचीन व अग्राह्य घोषित कर सकते थे।
इस प्रकार का यह प्रसंग गौतम और भगवान् महावीर के संवादस्वरूप प्रज्ञापना में कैसे निबद्ध हुआ? इसके विषय में उस प्रस्तावना के लेखक भी टीका की ओर संकेत मात्र करके अपना कुछ भी अभिप्राय व्यक्त नहीं कर सके ।'
षट्खण्डागम में स्त्री-वेद का काल बिना किसी मतभेद के जघन्य से एक समय भौर उत्कर्ष से पल्योपमशतपृथक्त्व कहा गया है ।' ___ क्या इससे यह समझा जाय कि षट्खण्डागमकार के समय तक स्त्रीवेद विषयक किसी प्रकार का मतभेद नहीं रहा, वे मतभेद पीछे उत्पन्न हुए हैं जिन्हें प्रज्ञापना में निबद्ध किया गया है ?
(८) प्रज्ञापना के अन्तर्गत २३-२७ और ३५ इन छह पदों में जो कर्म की प्ररूपणा की गई है वह षट्खण्डागम की अपेक्षा स्थूल व अतिशय संक्षेप में की गई है। उदाहरणस्वरूप वहाँ २३वें पदगत ५ अर्थाधिकारों में जीव कितने स्थानों के द्वारा कर्म को बाँधता है, इस तीसरे अर्थाधिकार में इतना मात्र अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि वह माया व लोभस्वरूप
१. गुजराती प्रस्तावना, पृ० ११० २. वेदाणुवादेण इत्थिवेदा। केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णण एगसमओ। उक्कस्सेण पलि
दोवम सदपुधत्तं । सूत्र २,२,११४-१६ (पु० ७) । यही काल इसके पूर्व जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत कालानुगम अनुयोगद्वार में भी मिथ्यात्व गुणस्थान के आश्रय से निर्दिष्ट किया गया है। सूत्र १,५,२२७-२६ (पु० ५)। यहाँ उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त रहा है।
२६० / षट्खण्डागम-परिशील
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