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________________ राग तथा क्रोध व मानस्वरूप द्वेष इन दो या चार स्थानों के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्म को बाँधता है । यही प्रक्रिया वहाँ नारक व नारकों से लेकर वैमानिक देव व देवों तक तथा अन्य दर्शनावरणीय आदि कर्मों के विषय में भी अपनाई गई है । (सूत्र १६७०-७४) षट्खण्डागम में जो कर्मबन्ध के कारणों का विचार किया गया है उसकी अपनी अलग विशेषता है । वहाँ 'वेदनाप्रत्ययविधान' नाम का एक स्वतंत्र अनुयोगद्वार है । उसमें नैगम, व्यवहार और संग्रह इन तीन नयों के आश्रय से प्राणातिपात आदि अनेक कारणों के द्वारा ज्ञानावरणीय आदि का बन्ध निर्दिष्ट किया गया है । ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा उक्त ज्ञानावरणीय आदि की प्रकृति व प्रदेशपिण्डरूप वेदना योग के निमित्त से कही गई है । शब्दनय की अपेक्षा उसे अवक्तव्य कहा गया है । सूत्र ४, २, ८, १-१६ ( पु०१२ ) इस प्रसंग में प्रज्ञापना की प्रस्तावना में यह अभिप्राय व्यक्त किया गया है कि प्रज्ञापना में उक्त प्रकार से जो राग व द्वेष को बन्ध का कारण निर्दिष्ट किया गया है वह प्राचीन स्तर का है। कर्मबन्ध के कारणविषयक इस सर्वमान्य सिद्धान्त को हृदयंगम कर पीछे उन कर्मबन्ध के कारणों का विचार श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य में पृथक् भूमिका में किया गया है । उसके दर्शन प्रज्ञापना में नहीं होते। इससे प्रज्ञापना की विचारणा का स्तर प्राचीन है। ( गुजराती प्रस्तावना पृ० १२५ ) इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि पीछे श्वेताम्बर व दिगम्बर साहित्य में जिस पद्धति से उन कर्मबन्ध के कारणों का विचार किया गया है उनका दर्शन षट्खण्डागम में नहीं होता, अतः षट्खण्डागम की उस कर्मबन्धविषयक विचारणा का स्तर प्राचीन है । वस्तुतः इस आधार से किसी ग्रन्थगत विवक्षित विषय की विचारणा के स्तर को प्राचीन या अर्वाचीन ठहरांना उचित नहीं प्रतीत होता । इसके पूर्व प्रज्ञापना के उपर्युक्त ५ अर्थाधिकारों में जो 'जीव कैसे उन्हें बाँधता है' यह दूसरा अर्थाधिकार है उसमें 'जीव आठ कर्मप्रकृतियों को कैसे बाँधता है' गौतम के इस प्रश्न के उत्तर में इतना मात्र कहा गया है कि ज्ञानावरणीय के उदय से दर्शनावरणीय, दर्शनावरणीय के उदय से दर्शनमोहनीय, दर्शन मोहनीय के उदय से मिथ्यात्व आता है ( नियच्छति') । उदय प्राप्त मिथ्यात्व से (?) हे गौतम ! इस प्रकार जीव आठ कर्मप्रकृतियों को बाँधता है ( १६६८) । प्रज्ञापना की प्रस्तावना में पाँच अर्थाधिकार युक्त इस २३ वें पदगत प्रथम उद्देश को प्राचीन स्तर का तथा उसी के दूसरे उद्देश के साथ आगे के कर्म से सम्बद्ध अन्य (२४-२७ व ३५) पदों को प्रज्ञापना में पीछे प्रक्षिप्त किया गया कहा गया है । प्रथम उद्देश प्राचीन स्तर का है, इसकी पुष्टि में वहाँ ये कारण दिये गये हैं १. बन्ध के प्रकृति आदि चार भेदों का निर्देश करके उनका क्रम के बिना निरूपण करना । १. मूल में जो " णाणावर णिज्जस्स कम्मस्स उदएणं दरिसणावर णिज्जं कम्मं नियच्छति" यह कहा गया है उसमें 'णियच्छति' का टीका में आगमन अर्थ अभिप्रेत रहा दिखता है । इस विवेचन का क्या आधार रहा है, यह ज्ञातव्य है । २. गुजराती प्रस्तावना, पृ० १२५-२६ Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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