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________________ विषय के निरूपण की सरल या जटिल प्रक्रिया अथवा विषय की सूक्ष्म या गम्भीर चर्चा के आधार से किसी ग्रन्थ के पौर्वापर्य का निर्णय नहीं किया जा सकता है; क्योंकि इस प्रकार की रचना का आधार लेखक के प्रयोजन पर निर्भर होता है, न कि उसमें की गई चर्चा की सूक्ष्मता या स्थूलता पर । इसलिए इन दोनों ग्रन्थों में चर्चित विषय की सूक्ष्मता या स्थूलता के आधार से उनके पौर्वापर्य के निर्णय में गम्भीर भूल होना सम्भव है।' । (६) प्रज्ञापना को चौथा उपांग माना जाता है। उपांग यह नाम प्राचीन नहीं है, उसका प्रचार बहुत पीछे हुआ है। नन्दिसूत्र (विक्रम ५२३ के लगभग) में, जहाँ श्रुत का विस्तार से वर्णन किया गया है, उपांग नाम दृष्टिगोचर नहीं होता। वहाँ श्रुत के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनमें अंगबाह्य को आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त के भेद से दो प्रकार का कहा गया है। इनमें भी आवश्यक को सामायिक आदि के भेद से छह प्रकार का और आवश्यकव्यतिरिक्त को कालिक और उत्कालिक के भेद स दो प्रकार का निर्दिष्ट किया गया है। आगे उत्कालिक को अनेक प्रकार का बतलाते हुए प्रकृत में उसके जिन २६ भेदों का उल्लेख है उनमें ८वां प्रज्ञापना है। (नन्दिसूत्र ७६-८३) इस प्रकार नन्दिसूत्र में प्रज्ञापना को उत्कालिक श्रुत में सम्मिलित किया गया है, न कि उपांगश्रुत में। नन्दिसूत्र में उसका उल्लेख होने से इतना निश्चित है कि उसकी रचना नन्दिसूत्र के पूर्व हो चुकी थी। किन्तु उससे कितने समय पूर्व वह रचा गया है, यह निर्णय है। उसका रचनाकाल जो प्रस्तावना लेखकों द्वारा वीरनिर्वाण सं० ३३५-७६ निर्दिष्ट किया गया है वह प्रामाणिक नहीं है, यह पीछे स्पष्ट किया जा चुका है। साथ ही षट्खण्डागम का रचना-काल जो वीरनिर्वाण ६८३ वर्ष के पश्चात् विक्रम सं० की दूसरी शती के लगभग निर्धारित किया गया है उसे प्रज्ञापना की उस प्रस्तावना के लेखक भी स्वीकार करते हैं। प्रस्तावना में यह भी कहा गया है कि आचार्य मलयगिरि के मतानुसार समवायांग में जो विषय वर्णित हैं उन्हीं का वर्णन प्रज्ञापना में है। इसलिए वह प्रज्ञापना का उपांग है। पर इस मत से स्वयं प्रस्तावना के लेखक भी सहमत नहीं दिखते। इसलिए आगे उसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है परन्तु ग्रन्थकर्ता ने स्वयं वैसी कुछ सूचना नहीं की है, उन्होंने तो स्पष्टतया उसका सम्बन्ध दृष्टिवाद अंग के साथ बतलाया है । और वह उचित भी है, क्योंकि दृष्टिवाद में प्रमुखता से दृष्टि (दर्शन) का वर्णन है। इसलिए जैन दर्शन द्वारा मान्य पदार्थों का निरूपण करनेवाले ग्रन्थ प्रज्ञापना का सम्बन्ध यदि दृष्टिवाद से हो तो वह अधिक उचित है। १. प्रज्ञापना की गुजराती प्रस्तावना, पृ० २१ २. उसका सम्बन्ध समयांग से घटित नहीं होता, इसे भी पीछे स्पष्ट किया जा चुका है । ३. प्रस्तावना में इसके पूर्व उसका सम्बन्ध दृष्टिवाद के अन्तर्गत १४ पूर्वो में ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ जोड़ा जा सकता है, यह भी अभिप्राय प्रकट किया गया है । अन्त में, जिस प्रकार धवला में षट्खण्डागम का सम्बन्ध अग्रायणीय पूर्व से जोड़ा गया है, उसी प्रकार दोनों ग्रन्थों में चर्चित विषय की समानता से प्रज्ञापना का सम्बन्ध अग्रायणीय-पूर्व के साथ रहना सम्भव है, यह अभिप्राय प्रकट किया गया है । (गु० प्रस्तावना पृ० ९-१०) षट्खण्डागम को अन्य ग्रन्थों से तुलना । २५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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