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मिथ्यावाद (एकेन्द्रिय ४, द्वीन्द्रिय २, त्रीन्द्रिय २, चतुरिन्द्रिय २; और असंजीपंचेन्द्रिय २, इन भारह प्रकार के तियंचों) में भी नहीं उत्पन्न होता है।'
यहां बारह प्रकार के जिस मिथ्यावाद का उल्लेख किया गया है वह भी धवला में नहीं मिलता है। प्रसंगवश वहाँ तिर्यंचों में प्रथम पाँच गुणस्थानों के सद्भाव के प्ररूपक सूत्र (१,१,२६) की व्याख्या करते हुए प्रसंग प्राप्त एक शंका के समाधान में असंयत सम्यग्दृष्टियों के उत्पन्न होने का निषेध किया गया है । वहाँ यह पूछे जाने पर कि वह कहां से जाना जाता है, इसके उत्तर में वहां इस गाथा को उद्धृत करते हुए कहा है कि वह इस आर्ष (आगमवचन) से जाना जाता है
छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सम्वइत्थीम् ।
देसू समुप्पज्जइ सम्माइट्ठी वु जो जीवो । पु० १, पृ० २०६ इस गाथा का पूर्वार्ध और पंचसंग्रहगत उस गाथा का पूर्वाधं सर्वथा समान है, केवल उत्तरार्ध ही भिन्न है। यदि धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह रहा होता तो वे उसी रूप में उस गाथा को प्रस्तुत कर सकते थे। साथ ही वे कदाचित् 'आर्ष' के स्थान में किसी रूप में पंचसंग्रह का भी संकेत कर सकते थे।
रत्नकरण्डक (३५) में भी बारह प्रकार के उस मिथ्यावाद का उल्लेख नहीं है, वहाँ सामान्य से 'तिर्यंच' का ही निर्देश किया गया है।
अमितगति विरचित पंचसंग्रह में भी उस मिथ्यावाद का उल्लेख नहीं किया गया। यही नहीं, वहाँ तो 'तिर्यंच' का उल्लेख भी नहीं किया है। सम्भवतः यहाँ भोगभूमिज तियंचों को लक्ष्य में रखकर 'तियंच' का उल्लेख नहीं किया गया है।' जीवसमास की प्राचीनता
संग्रहकर्ता ने प्रस्तुत पंचसंग्रह के अन्तर्गत पूर्वनिर्दिष्ट 'जीवसमास' नामक अधिकार का उपसंहार करते हुए यह कहा है
अणिक्खेवे एय? णयप्पमाणे णित्ति अणि योगे।
मग्गइ बीसं भेए सो आणइ जीवसम्भावं ॥१-१२।। इस गाथा का मिलान 'ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था' से प्रकाशित जीवसमास ग्रन्थ की इस गाथा से कीजिए, जो मंगलगाथा के अनन्तर ग्रन्थ के प्रारम्भ में दी गई है
णिक्खेव-णिरत्तीहि य छहि अट्ठहि अणुयोगद्दारेहिं ।।
गइआइमग्गणाहि य जीवसमासाऽणुगंतम्वा ॥-गाथा २ इस गाथा में ग्रन्थकार द्वारा निक्षेप, निरुक्ति, निर्देश-स्वामित्व आदि छह अथवा
१. छसु हेट्ठिमासु पुढवीसु जोइस-वण-भवण-सव्वइत्थीसु ।
बारस मिच्छावादे सम्माइटिस्स णस्थि उववादो ॥ १-१९३।। २. निकायत्रितये पूर्वे श्वभ्रभूमिषु षट्स्वधः । __ वनितासु समस्तासु सम्यग्दृष्टिर्न जायते ॥ ३. यह गाथा गो० जीवकाण्ड में भी बीस प्ररूपणाओं का उपसंहार करते हुए प्रन्थ के अन्त में
उपलब्ध होती है । (गा० ७३३)
२६२ / षट्समागम-परिशीलन
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