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पृ० ८ । (यहीं पर आगे पृ० ११-१६ में उद्धृत १४ (६-१६) गाथाएँ भी दृष्टव्य है)
४. यहीं पर आगे मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इन चार मूल बन्धप्रत्ययों में तथा इनके उत्तर ५७ बन्धप्रत्ययों में से क्रम से मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में कितने मूल व उत्तर प्रत्ययों के प्राश्रय से कर्मबन्ध होता है, इसकी निर्देशक ३ गाथाएँ उद्धृत की गई हैं। देखिए पु०८, पृ० २४ । (आगे पृ० २८ पर भी एक गाथा द्रष्टव्य है।)
ये यहाँ कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे अन्यत्र भी कितनी ही ऐसी गाथाएँ धवला म-जैसे पु० १ में पृ० १०, ११,५५,५७,५६,६१ व ६८ आदि पर-उद्धृत हैं जो उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों में कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होती।
धवलाकार के समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह के न रहने के कारण
१. षटखण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वारों में पांचवें कालानुगम अनुयोगद्वार में 'जीवसमाए वि उत्त' ऐसी सूचना करते हुए धवलाकार ने "छप्पंचणवविहाणं" इत्यादि गाथा को उद्धृत किया है । यह गाथा प्रस्तुत पंचसंग्रह के जीवसमास प्रकरण (१-१५६) में भी उपलब्ध होती है। पर उसे वहाँ से लेकर धवला में उद्धृत किया गया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता।
जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है,' 'जीवसमास' नाम का एक ग्रन्थ श्वे. सम्प्रदाय में उपलब्ध है और वह ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था रतलाम से प्रकाशित हो चुका है। पूर्वोक्त गाथा इस 'जीवसमास' में यथास्थान ८२ गाथांक के रूप में अवस्थित है । धवलाकार ने सम्भवतः उसे वहीं से लेकर 'जीवसमास' नामनिर्देश के साथ धवला में उद्धृत कर दिया है।
२. प्रस्तुत पंचसंग्रह के अन्तर्गत 'जीवसमास' प्रकरण में गाथा १०२ व १०४ के द्वारा प्रव्य-भाववेदविषयक विपरीतता को भी प्रकट किया गया है। किन्तु धवला में यह स्पष्ट कहा गया है कि कषाय के समान वेद अन्तर्मुहूर्तकाल रहनेवाला नहीं है, क्योंकि उनका उदय जन्म से लेकर मरणपर्यन्त रहता है।
यही अभिप्राय प्राचार्य अमितगति विरचित पंचसंग्रह में भी प्रकट किया गया है।
पंचसंग्रहगत जीवसमास प्रकरण में कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव नीचे की छह पृथिवियों व ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देवों में; समस्त स्त्रियों में और बारह प्रकार के
१. धवला पु० ४, पृ० ३१५; इसके पूर्व यह गाथा सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार (पु० १, पृ०३६५) ___में भी धवला में उद्धृत की जा चुकी है । २. देखें 'षट्खण्डागम और जीवसमास' शीर्षक । ३. "इत्थी पुरिस णउसय वेया खलु दम्व-भावदो होति ।
ते चेय य विपरीया हवंति सम्वे जहाकमसो॥" ४. कषायवन्नान्तर्मुहूर्तस्थायिनो वेवाः, आजन्मन: आमरणात्तदुदयस्य सत्त्वात् । (धवला
पु० १, पृ० ३४६) ५. नान्तमौर्तिका वेदास्ततः सन्ति कषायवत् ।
आजन्म-मृत्युतस्तेषामुदयो दृश्यते यतः ।। १-१६३ ।।
षदलण्डागम को अन्य प्रन्यों से तुलना / २६१
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