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________________ रहा है, वहाँ परिभ्रमण करते हुए उसके अपर्याप्त भव बहुत व पर्याप्त भव थोड़े रहे हैं, इत्यादि क्रम से उसके लक्षणों को स्पष्ट करते हुए (७६ - १०१ ) अन्त में कहा गया है कि इस प्रकार से परिभ्रमण करके जो अन्तिम भवग्रहण में फिर से पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर सर्वलघु योनिनिष्क्रमण रूप जन्म से आठ वर्ष का होता हुआ संयम को प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त से क्षपणा में उद्यत हुआ व अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करके केवली हुआ है, इस प्रकार कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण भवस्थिति काल तक Shafeविहार से विहार करके जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो अन्तिम समयवर्ती भव्य'सिद्धिक हुआ है उसके द्रव्य से जघन्य वेदनीयवेदना होती है ( १०२ - ८ ) । श्रजघन्य वेदनीयद्रव्यवेदना उससे भिन्न निर्दिष्ट की गई है ( १०६) । इसके अनन्तर यह कहा गया है कि जिस प्रकार ऊपर जघन्य - अजघन्य वेदनीयद्रव्यवेदना की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार नाम व गोत्र इन दो कर्मों की भी जघन्य - अजघन्य द्रव्यवेदनाओं की प्ररूपणा करना चाहिए ( ११० ) । स्वामित्व के आश्रय से जघन्य पद में द्रव्य से जघन्य आयुवेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट करते हुए आगे कहा गया है कि जो पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जीव अल्प प्रायुबन्धकाल नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में आयु को बाँधता है, उसे जो तत्प्रायोग्य जघन्य योग के द्वारा बाँधता है, योगयवमध्य के नीचे जो अन्तर्मुहूर्तकाल रहता है, प्रथम जीवगुणहानिस्थानान्तर में जो आवली के श्रसंख्यातवें भाग मात्र रहता है, पश्चात् क्रम से काल को प्राप्त होकर जो नीचे सातवीं पृथिवी के नारकियों में उत्पन्न हुआ है, वहाँ प्रथम समयवर्ती आहारक और प्रथम समयवर्ती तद्भवस्थ होकर जिसने जघन्य योग के द्वारा पुद्गलपिण्ड को ग्रहण किया है, जो जघन्य वृद्धि से वृद्धिंगत हुआ है, अन्तर्मुहूर्त में सर्वाधिक काल से जो सब पर्याप्तियों से पर्याप्त हुआ है, वहाँ पर तेंतीस सागरोपम प्रमाण भवस्थिति तक आयु का पालन करता हुआ जो बहुत बार असाताकाल से युक्त हुआ है; तथा जीवित के थोड़ा शेष रह जाने पर जो अनन्तर समय में परभव सम्बन्धी आयु को बाँधेगा उसके द्रव्य से जघन्य आयुवेदना होती है ( १११-२१) । द्रव्य से जघन्य इस आयुवेदना से भिन्न प्रजघन्य आयुर्वेदना कही गई है (१२२) । आयुकर्म के इस अजघन्य द्रव्य की प्ररूपणा गणितप्रक्रिया के अनुसार धवला में विस्तारपूर्वक की गई है । ' इस प्रकार यहाँ स्वामित्व अनुयोद्वार समाप्त हो जाता है । अल्पबहुत्व — ' वेदना द्रव्यविधान' का तीसरा अनुयोगद्वार है । इसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं— जघन्य पदविषयक, उत्कृष्ट पदविषयक और जघन्य उत्कृष्ट पदविषयकं अल्पबहुत्व (१२३) । इनमें जघन्य पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा में कहा गया है कि जघन्य पद की अपेक्षा द्रव्य से जघन्य आयुवेदना सबसे स्तोक है, द्रव्य से जघन्य नामवेदना व गोत्रवेदना दोनों परस्पर समान होकर उससे असंख्यातगुणी है, द्रव्य से जघन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय तीनों वेदना में परस्पर समान व उन दोनों से विशेष अधिक हैं। उनसे जघन्य मोह १. धवला पु० १०, पृ० ३३६-८४ Jain Education International लग्रन्थगत विषय का परिचय / ८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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