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________________ atrद्रव्यवेदना विशेष अधिक है, जघन्य वेदनीयवेदना उससे विशेष अधिक है ( १२४-२५) । इसी पद्धति से आगे उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है ( १२९-३३) । जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व के प्रसंग में द्रव्य से जघन्य आयुवेदना को सबसे स्तोक, उससे उसी की उत्कृष्ट वेदना असंख्यातगुणी, उससे नामवेदना और गोत्र वेदना द्रव्य से जघन्य दोनों परस्पर समान होकर असंख्यातगुणी हैं, इस पद्धति से आगे इस जघन्य - उत्कृष्ट पदविषयक अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है (१३४-४३) । चूलिका - इस प्रकार पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन तीन अधिकारों में विभक्त प्रस्तुत वेदना द्रव्यविधान के समाप्त हो जाने पर उसकी चूलिका प्राप्त हुई है । यद्यपि मूल ग्रन्थ में इस प्रकरण का उल्लेख 'चूलिका' नाम से नहीं किया गया है, पर धवलाकार ने उसे चूलिका कहा है | धवला में इस प्रकरण के प्रारम्भ में यह शंका की गई है कि पूर्वोक्त तीन अनुयोगद्वारों के आश्रय से विस्तारपूर्वक वेदना द्रव्यविधान की प्ररूपणा कर देने पर यह आगे का ग्रन्थ किसलिए कहा जाता है । इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने निष्कर्ष के रूप में कहा है कि वेदना द्रव्यविधान की चूलिका की प्ररूपणा करने के लिए यह आगे का ग्रन्थ आया है। सूत्रों से सूचित अर्थ को प्रकाशित करना, यह चूलिका का लक्षण है । ' इस प्रकरण के प्रारम्भ में सूत्र कार ने कहा है कि यहाँ जो यह कहा गया है कि " "बहुतबहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानों को प्राप्त होता है" (४,२, ४, १२ व १६ ) तथा 'बहुत - बहुत बार जघन्य योगस्थानों को प्राप्त होता है" (४,२, ४, ५४ ) यहाँ उसके स्पष्टीकरण में अल्पबहुत्व दो प्रकार का है-योगाल्पबहुत्व और प्रदेशाल्पबहुत्व (१४४) । यह कहते हुए उन्होंने आगे जीवसमासों के आश्रय से प्रथमतः योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा इस प्रकार की है सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग सबसे स्तोक है, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त का जघन्य योग उससे असंख्यातगुणा है, इत्यादि (१४५-७३) । धवलाकार ने इस मूलवीणा के अल्पबहुत्वालाप को देशामर्शक कहकर यहाँ धवला में उससे सूचित प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है । * इस प्रकार योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा करके आगे क्रम प्राप्त प्रदेशात्पबहुत्व की प्ररूपणा के विषय में यह कह दिया है कि जिस प्रकार योगाल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार प्रदेशाल्पबहुत्व की प्ररूपणा करना चाहिए । विशेष इतना है कि सूत्रों में जहाँ योगाल्पबहुत्व प्रसंग में योग को अल्प कहा गया है वहाँ इस प्रदेशाल्पबहुत्व के प्रसंग में प्रदेशों को अल्प कहना चाहिए (१७४) । आगे योगस्थानप्ररूपणा में ये दस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य कहे गए हैं-- अविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ( १७५-७६) । १. धवला पु० १०, पृ० ३६५ २. धवला पु० १०, पृ० ४०३-३१ ८४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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