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१. अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि एक-एक जीवप्रदेश में योग के कितने अविभागप्रतिच्छेद होते हैं (१७७-७९) ।
२. वर्गणाप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि असंख्यात लोक मात्र अविभागप्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है। ऐसी वर्गणाएँ श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यातहोती हैं (१८०-८१)।
३. एक स्पर्धक श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात वर्गणाओं का होता है। ऐसे स्पर्धक श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात होते हैं। यह विवेचन स्पर्धक-प्ररूपणा में किया गया है (१८२-८३)।
४. अन्तरप्ररूपणा में एक-एक स्पर्धक का अन्तर असंख्यात लोकमात्र होता है, इसे स्पष्ट किया गया है (१८४-८५)।
५. स्थानप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात स्पर्धकों का एक जघन्य योगस्थान होता है। ऐसे योगस्थान श्रेणि के असंख्यातवें भाग असंख्यात होते हैं (१८६-८७)।
६. अनन्तरोपनिधा में योगस्थानगत स्पर्धकों की हीनाधिकता को प्रकट किया गया है (१८८-६२)।
७. परम्परोपनिधा में यह स्पष्ट किया गया है कि जघन्य योगस्थानों से आगे श्रेणि के असंख्यातवें भागमात्र जाकर वे दुगुणी वृद्धि को प्राप्त हुए हैं । इस प्रकार वे उत्कृष्ट योगस्थान तक उत्तरोत्तर दुगुणी वृद्धि को प्राप्त हुए हैं, इत्यादि (१६३-६६)।
८. समयप्ररूपणा में चार समय वाले व पाँच समय वाले आदि योगस्थान कितने हैं, इसे स्पष्ट किया गया है (१६७-२००) । ____६. वृद्धिप्ररूपणा में यह स्पष्ट किया गया है कि योगस्थानों में इतनी वृद्धि-हानियाँ हैं और इतनी नहीं हैं। साथ ही उनके काल का भी यहाँ निर्देश किया गया है (२०१-५) ।
१०. अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में आठ व सात आदि समयोंवाले योगस्था में हीनाधिकता को प्रकट किया है (२०६-१२)।
अन्त में यह निर्देश किया गया है कि जो (जितने) योगस्थान हैं वे (उतने) ही प्रदेश-बन्धस्थान हैं । विशेष इतना है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेष से विशेष अधिक हैं। (२१३) ।
इसे धवला में बहुत कुछ स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार यह वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । वेदना अनुयोगद्वार के अन्तर्गत पूर्वोक्त १६ अनुयोगद्वारों में से पूर्व के ये चार अनुयोगद्वार दसवीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। - ५. वेदनाक्षेत्र विधान. वेदना के अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वारों में यह पाँचवाँ अनुयोगद्वार है । पूर्व वेदनाद्रव्यविधान के समान इस वेदनाक्षेत्र विधान में भी वे ही पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व नाम के तीन अनुयोगद्वार हैं (सूत्र १-२)।
पदमीमांसा के अनुसार यहाँ यह पूछा गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्र की अपेक्षा क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुकृष्ट है, क्या जघन्य है, और क्या अजघन्य है । उत्तर में कहा गया है कि वह उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी और अजघन्य भी है। आगे यह सूचना कर
१. धवला पु० १०, पृ० ५०५-१२
मलग्रन्थगत विषय का परिचय / ८५
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