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६. छेदसुत्त—यह एक प्रायश्चित्तविषयक कोई प्राचीन ग्रन्थ रहा प्रतीत होता है। वह कब और किसके द्वारा रचा गया है, यह ज्ञात नहीं होता। सम्भव है वह आ० वीरसेन के समक्ष रहा हो। पर जिस प्रसंग में धवला में उसका उल्लेख किया गया है, वहाँ प्रसंग के अनुसार उसका कुछ उद्धरण भी दिया जा सकता था। किन्तु उद्धरण उसका कुछ भी नहीं दिया गया। इससे धवलाकार के समक्ष उसके रहने में कुछ सन्देह होता है । प्रसंग इस प्रकार रहा है- वेदनाकालविधान में आयुवेदना काल की अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है, इसका विचार करते हुए सूत्रकार ने उसके स्वामी के विषय में अनेक विशेषण दिये हैं। प्रसंगप्राप्त सूत्र (४,२, ६,१२) में वहाँ यह भी कहा गया है कि आयु की वह उत्कृष्ट कालवेदना स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी अथवा नपंसकवेदी इनमें से किसी के भी हो सकती है, क्योंकि इनमें से किसी के साथ उसका विरोध नहीं है।
इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि इस सूत्र में भाववेद का ग्रहण किया गया है. क्योंकि अन्यथा द्रव्य-स्त्रीवेद से भी नारकियों की उत्कृष्ट आयु के बन्ध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु द्रव्य-स्त्रीवेद के साथ उसका बन्ध नहीं होता है, अन्यथा "सिंह पांचवीं पृथिवी तक और स्त्रियां छठी पृथिवी तक जाती हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध होने वाला है। द्रव्य-स्त्रीवेद के साथ देवों की उत्कृष्ट आयु का भी बन्ध नहीं होता है, अन्यथा "ग्रेवेयकों को आदि लेकर आगे के देवों में नियम से निर्ग्रन्थलिंग के साथ ही उत्पन्न होते हैं" इस सूत्र' के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है। किन्तु द्रव्य-स्त्रियों के वह निर्ग्रन्थलिंग सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्त्र आदि के छोडे बिना उनके भावनिर्ग्रन्थता सम्भव नहीं है । और द्रव्यस्त्रियों एवं द्रव्यनपुंसकवेदियों के वस्त्र आदि का परित्याग हो नहीं सकता है, क्योंकि वैसा होने पर छेदसुत्त के साथ विरोध होता है।
धवलाकार की प्राय: यह पद्धति रही है कि वे विवक्षित विषयक व्याख्यान की प्रष्टि में अधिकतर प्राचीन ग्रन्थों के अवतरण देते रहे हैं, किन्तु इस प्रसंग में उन्होंने छेदसूत्र के साथ विरोध मात्र प्रकट किया है, प्रसंगानुरूप उसका कोई उद्धरण नहीं दिया। __इसके पूर्व सत्प्ररूपणा में भी एक ऐसा ही प्रसंग आ चुका है, पर वहां उन्होंने छेदसत्र जैसे किसी प्राचीन ग्रन्थ से उपर्युक्त अभिप्राय की पुष्टि नहीं की है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में भी प्रायश्चित्तविषयक कुछ प्राचीन ग्रन्थ होने चाहिए, पर अभी
१. आ पंचमि त्ति सीहा इत्थीओ जंति छट्ठिपुढवि त्ति ।-मूला० १२-११३
पंचमखिदिपरियंतं सिंहो इत्थीवि छ?खिदि अंतं ।-ति०प० २-२८५ २. तत्तो परं तु णियमा तव-दसण-णाण-चरणजुत्ताणं। णिग्गंथाणुववादो जाव दुसव्वट्ठसिद्धि त्ति ।।-मूला० १२-१३५ परदो अच्चण-वद-तव-दसण-णाण-चरणसंपण्णा। णिग्गंथा जायते भव्वा सव्वट्ठसिद्धिपरियंतं ॥-ति०प० ८-५६१ ३. धवला, पु० ११, पृ० ११४-१५ ४. वही, पु० १, पृ० ३३२-३३ ५. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में तो प्रायश्चित्तविषयक बृहत्कल्पसूत्र और व्यवहारसूत्र जैसे ग्रन्थ
पाये जाते हैं।
५८४ | षट्लण्डागम-परिशीलन
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