________________
तक कहीं कोई वैसा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है।
मा०दि० जैन ग्रन्थमाला से प्रकाशित 'प्रायश्चित्तसंग्रह' में छेदपिण्ड, छेदशास्त्र, प्रायश्चित्तचूलिका और प्रायश्चित्तग्रन्थ ये चार ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, पर वे सभी अर्वाचीन दिखते हैं। उनमें मैंने वैसे किसी प्रसंग को खोजने का प्रयत्न किया है, पर उनमें मुझे वसा कोई प्रसंग दिखा नहीं है ।
(७) जीवसमास-जीवस्थान-कालानुगम अनुयोगद्वार में प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए वहाँ धवलाकार ने तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के प्रसंग में 'जीवसमासाए वि उत्तं' इस सूचना के साथ निम्न गाथा को उद्धृत किया है
छप्पंच-णवविहाणं अत्थाणं णिजवरोवइट्ठाणं ।
___ आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं' । यह गाथा दि० प्रा० पंचसंग्रह के अन्तर्गत पाँच प्रकरणों में से प्रथम 'जीव-समास' प्रकरण में गाथांक १५६ के रूप में उपलब्ध होती है । साथ ही वह प्राकृत वृत्ति से सहित दूसरे प्रा० पंचसंग्रह के तीसरे 'जीव-समास' प्रकरण में भी गाथांक १४६ के रूप में उपलब्ध होती है।'
८. जोणिपाहुड–'प्रकृति' अनुयोगद्वार में केवलज्ञानावरणीय के प्रसंग में सूत्रकार द्वारा केवलज्ञान के स्वरूप का निर्देश करते हुए उसके विषयभूत कुछ विशिष्ट पदार्थों का उल्लेख किया गया है। उनमें अनुभाग भी एक है ।--सूत्र, ५, ५ ६७-६८ (पु० १३)
धवला में उसकी व्याख्या करते हुए छह द्रव्यों की शक्ति को अनुभाग कहा गया है। वे हैं जीवानुभाग, पुद्गलानुभाग, धर्मास्तिकायानुभाग, अधर्मास्तिकायानुभाग, आकाशास्तिकायानुभाग और कालद्रव्यानुभाग। इनमें पुद्गलानुभाग के लक्षण का निर्देश करते हुए धवला में कहा गया है कि ज्वर, कुष्ठ और क्षय आदि रोगों का विनाश करना, यह पुद्गलानुभाग का लक्षण है। निष्कर्ष रूप में वहाँ यह भी कहा गया है कि योनिप्राभृत में वर्णित मन्त्र-तन्त्र शक्तियों को पुद्गलानुभाग जानना चाहिए। ___जैसा कि पूर्व में 'धरसेनाचार्य व योनिप्राभूत' शीर्षक में कहा जा चुका है, वह कदाचित् धरसेनाचार्य के द्वारा विरचित हो सकता है।
8.णिरयाउबंधसुत्त-यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ रहा है या किसी कर्मग्रन्थ का कोई प्रकरण विशेष रहा है, यह अन्वेषणीय है।
पूर्वोक्त जीवस्थान-कालानुगम अनुयोगद्वार में प्रथमादि सात पृथिवियों में वर्तमान मिथ्यादृष्टि नारकियों के उत्कृष्टकाल प्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,५,४) की व्याख्या में धवलाकार ने पृथक्-पृथक् प्रथमादि पृथिवियों में उनके उस उत्कृष्ट काल काउल्लेख किया है। कारण को स्पष्ट करते हुए उन्होंने यह कहा है कि इससे अधिक आयु का बन्ध उनके सम्भव नहीं है । इस विषय में यह पूछे जाने पर कि वह कहाँ से जाना जाता है, उन्होंने “एक्कं तिय सत्त
१. धवला, पु० ४, पृ० ३१५ २. भा. ज्ञानपीठ से प्रकाशित पंचसंग्रह में पृ० ३४ व ५८२ (यह गाथा 'ऋषभदेव केशरीमल
श्वेता० संस्था, रतलाम से प्रकाशित (ई. १९२८) जीव-समास में भी हो सकती है ।) ३. जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंतसत्तीयो पोग्गलाणुभागो त्ति धेत्तन्वो।
-धवला, पु० १३, पृ० ३४६
प्रन्थोल्लेख / ५८५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org