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________________ अनन्तर गोत्र कर्म की दो और अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियों का निर्देश किया गया है। (१३४-३७)। इस प्रकार प्रकृति के नाम, स्थापना और द्रव्य रूप तीन भेदों की प्ररूपणा करके आगे उसके चौथे भेदभूत भावप्रकृति की प्ररूपणा करते हुए उसके इन दो भेदों का निर्देश किया गया है-आगमभाव प्रकृति और नो-आगमभाव प्रकृति । आगमभाव प्रकृति के प्रसंग में उसके स्वरूप को प्रकट करते हुए पूर्व के समान उसके स्थित-जित आदि नौ अर्थाधिकारों के साथ तद्विषयक वाचना-पृच्छना आदि आठ उपयोग-विशेषों का भी उल्लेख किया गया है। दूसरी नोआगमभाव प्रकृति को अनेक प्रकार का कहा गया है । जैसे--सुर व असुर आदि देवविशेष, मनुष्य एवं मृग-पशु अर्थात् पक्षी आदि विविध प्रकार के तिर्यंच और नारकी इनकी निज का अनुसरण करनेवाली प्रकृति (१३८-४०)। अन्त में प्रकरण का उपसंहार करते हुए 'इन प्रकृतियों में यहां कौन-सी प्रकृति प्रकृत है', इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि उनमें यहाँ भावप्रकृति प्रकृत है। इस प्रकार प्रथम प्रकृति निक्षेप अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करके आगे यह कह दिया है कि शेष प्ररूपणा वेदना अनुयोगद्वार के समान है (१४२-४२)। __इसका अभिप्राय यह रहा है कि प्रकृतिनयविभाषणता आदि जिन शेष १५ अनुयोगद्वारों की यहां प्ररूपणा नहीं की गई है उनकी वह प्ररूपणा वेदना अनुयोगद्वार के समान समझना चाहिए। ___ इस प्रकार 'वर्गणा' खण्ड के अन्तर्गत स्पर्श, कर्म और प्रकृति ये तीनों अनुयोगद्वार १३वीं जिल्द में प्रकाशित हुए हैं। ४. बन्धन यहां सर्व प्रथम सूत्र में यह निर्देश किया गया है कि 'बन्धन' इस अनुयोगद्वार में बन्धन की विभाषा (व्याख्यान) चार प्रकार की है-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान (सूत्र १)। इसकी व्याख्या करते हुए धवलाकार ने 'बन्धन' शब्द की निरुक्ति चार प्रकार से की है-बन्धो बन्धनम्, बध्नातीति मन्धनः, बध्यते इति बन्धनम्, बध्यते अनेनेति बन्धनम् । इनमें प्रथम निरुक्ति के अनुसार बन्ध ही बन्धन सिद्ध होता है । दूसरी निरुक्ति कर्ता के अर्थ में की - १. प्रकृतियों की यह प्ररूपणा कुछ अपवादों को छोड़कर-जैसे ज्ञानावरणीय व आनुपूर्वी आदि-प्रायः सब ही जीवस्थान की नौ चूलिकाओं में प्रथम 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' चूलिका के समान है। दोनों में सूत्र भी प्रायः वे ही हैं । उदाहरण के रूप में इन सूत्रों को देखा जा सकता है-प्रकृति अनुयोगद्वार सूत्र ८६-११४, प्रकृतिसमु० चूलिका सूत्र १५-४१ । सूत्रसंख्या में जो भेद है वह एक ही सूत्र के २-३ सूत्रों में विभक्त हो जाने के कारण हुआ है । जैसे-जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधदो एयविहं ।।११।। तस्स संत कम्म पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ।।१२।। (प्रकृतिअनु) जं तं दंसणमोहणीये कम्मं तं बंधादो एयविहं तस्स संतकम्मं पुण तिविहं-सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि ।।२१।। (जी० चूलिका १) ११६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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