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________________ मतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा के प्रसंग में उसके ये छह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं---वह ऋजु व अनृजु मनोगत अर्थ को जानना है, ऋजु व अनृजु वचनगत अर्थ को जानता है तथा ऋजु व अनृजु कायगत अर्थ को जानता है। इसका अभिप्राय ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय के ही समान समझना चाहिए । इसी प्रकार आगे ऋजुमतिमनःपर्यय के समान इस विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान के विषय की भी प्ररूपणा उसी पद्धति से की गई है (७०-७८)। ___ आगे क्रमप्राप्त केवलज्ञानावरणीय की प्ररूपणा के प्रसंग में उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि केवलज्ञानावरणीय कर्म की एक ही प्रकृति है । अनन्तर उस केवलज्ञानावरणीय से आवृत केवलज्ञान के स्वरूप को प्रकट करते हुए उसे सकलतीनों कालों के विषयभूत समस्त बाह्य पदार्थों को विषय करनेवाला, सम्पूर्ण-अनन्तदर्शन व वीर्य आदि अनन्तगुणों से परिपूर्ण-और कर्म-वैरी से रहित होने के कारण असपत्न कहा गया है। आगे स्वयं उत्पन्न होनेवाले उस केवलज्ञान के विषय को प्रकट करते हुए कहा गया है कि स्वयं उत्पन्न हए ज्ञान-दर्शन से सम्पन्न भगवान देवलोक, असुरलोक व मनुष्यलाक (ऊर्व, अध: व तिर्यक् तीनों लोक) की गति, आगति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, द्युति, अनुभाग, तर्क, फल, मन, मानसिक, मुक्त, कृति, प्रतिसेवित, आदिकर्म, अरहःकर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को समीचीनतया जानते हैं, देखते हैं व विहार करते हैं (७६-८३)। आगे क्रम से दर्शनावरणीय (८४-८६), वेदनीय (८७-८८), मोहनीय (८६-६८) और आयु (EE) कर्म की उत्तरप्रकृतियों का नाम-निर्देश किया गया है। तत्पश्चात् नामकम की ब्यालीस प्रकृतियों का निर्देश करते हए उनमें यथाक्रम से आनुपूर्वी तक गति-जाति आदि तेरह पिण्डप्रकृतियों की उत्तरप्रकृतियों के नामों का भी निर्देश किया गया है (१००-१३२)। विशेषता यहाँ यह रही है कि आनुपूर्वी के प्रसंग में उसकी नरकगति-प्रायोग्यानुपूर्वी आदि चार में प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों के प्रमाण को भी दिखलाते हुए उसमें एक वार अल्पबहुत्व को प्रकट करके (१२३-२७) 'भयो अप्पाबहअं इस सचना के साथ प्रकारान्तर से पूनः उस अल्पबहुत्व को प्रकट किया गया है (१२८-३२)। ___ इस प्रसंग में यहाँ धवला में यह शंका की गई है कि एक वार उनके अल्पबहुत्व को कहकर फिर से उसकी प्ररूपणा किसलिए की जा रही है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा गया है कि अन्य भी व्याख्यानान्तर है, इसके ज्ञापनार्थ उसका प्रकारान्तर से पुनः कथन किया जाता है। आगे जिन अगुरुलघु आदि २६ प्रकृतियों का उल्लेख पूर्व (१०१) में किया जा चुका है उनका उल्लेख उसी रूप में यहां पुनः किया गया है (१३३)। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि इन प्रकृतियों की प्ररूपणा उत्तरोत्तर प्रकृतियों की प्ररूपणा जानकर करना चाहिए । इनकी उत्तरोत्तर प्रकृतियां नहीं हैं, ऐसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि धव और धम्ममन आदि प्रत्येक शरीर तथा मूली और थूहर आदि साधारण-शरीर इनके बहत प्रकार के स्वर और गमन आदि उपलब्ध होता है। १. यह सन्दर्भ आचारांग द्वि० श्रुतस्कन्ध (चू० ३) गत केवलज्ञान विषयक सन्दर्भ से शब्दश: । बहुत कुछ मिलता-जुलता है । पृ० ८८८ मूलग्रन्थगत विषय का परिचय | ११५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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