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एक अनवस्थित अवधिज्ञान भी है । अनवस्थित अवधिज्ञान वह है जो उत्पन्न होकर घटताबढ़ता रहता है। इस अनवस्थित अवधिज्ञान के जघन्य व उत्कृष्ट काल के अन्तर्गत अनेक काल भेदों की प्ररूपणा करते हुए समय, प्रावलि, क्षण, लव, मुहूर्त आदि सागरोपम पर्यन्त अनेक काल भेदों का उल्लेख किया गया है (५६)।
दो परमाणुओं का तत्प्रायोग्य वेग से ऊपर व नीचे जाते हुए शरीरों के साथ परस्पर स्पर्श होने में जितना काल लगता है उसका नाम समय है। यह उसके प्रवस्थान का जघन्य काल है। कारण यह कि कोई अवधिज्ञान उत्पन्न होने के दसरे ही समय में विनष्ट होता हुआ उपलब्ध होता है। इसी प्रकार उसका अवस्थान काल क्षण-लव आदि समझना चाहिए। ___ आगे अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र दिखलाते हुए कहा गया है कि तृतीय समयवर्ती आहारक और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ हुए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक की जितनी अवगाहना होती है उतना अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र है। इस प्रकार अवधिज्ञान के जघन्य क्षेत्र को दिखला कर आगे क्षेत्र से सम्बद्ध काल की और काल से सम्बद्ध क्षेत्र के प्रमाण की प्ररूपणा की गई है। इसी प्रसंग में नाना काल और नाना जीवों के आश्रय से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से सम्बद्ध वृद्धि के क्रम को भी प्रकट किया गया है। इस प्रकार द्रव्य से सम्बद्ध उसके क्षेत्र-काल आदि की प्ररूपणा करते हुए कौन-कौन जीव उस अवधिज्ञान के द्वारा क्षेत्र-काल आदि की अपेक्षा कितना जानते हैं; इसे स्पष्ट किया गया है (गाथा सूत्र ३-१७, पृ० ३०१-२८)।
__ इस प्रकार अवधिज्ञानावरणीय की प्ररूपणा को समाप्त कर आगे मनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म की प्ररूपणा करते हुए उसकी कितनी प्रकृतियाँ हैं, इसके स्पष्टीकरण में कहा गया है कि उसकी दो प्रकृतियाँ हैं--ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय और विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय । इनमें जो ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म है वह तीन प्रकार का है - ऋजुमनोगत अर्थ को जानता है, ऋजुवचनगत अर्थ को जानता है और ऋजुकायगत अर्थ को जानता है (६०-६२)।
इसका अभिप्राय यह रहा है कि ऋजमनोगत अर्थ को विषय करनेवाले, ऋजुवचनगत अर्थको विषय करनेवाले और ऋजुकायगत अर्थ को विषय करनेवाले इस तीन प्रकार के मनःपर्ययज्ञान को आवृत करनेवाला ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय कर्म भी तीन प्रकार का है।
इसके पश्चात् ऋजुमतिमनःपर्यय ज्ञान के विषय की प्ररूपणा करते हुए यह कहा गया है कि मनःपर्ययज्ञानी मन (मतिज्ञान) से मानस को ग्रहण करके दूसरों की संज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाश, कर्वटविनाश, मडंबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अक्षेम, भय और रोग इन सब काल से विशेषित पदार्थों को जानता है। इनके अतिरिक्त वह व्यक्त मनवाले अपने व दूसरे जीवों से सम्बन्धित वस्तुओं को जानता है, किन्तु अव्यक्त मनवाले जीवों से सम्बन्धित वस्तुओं को वह नहीं जानता है । आगे इसी प्रसंग में काल और क्षेत्र की अपेक्षा वह कितने विषय को जानता है. इसे भी स्पष्ट किया गया है (६३-६६)।
इस प्रकार ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानावरणीय की प्ररूपणा को समाप्त कर आगे विपुल
११४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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