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________________ ये छह अनुयोगद्वार कौन-से हैं, उनके नामों का उल्लेख यद्यपि ग्रन्थ में नहीं किया गया है, फिर भी प्रश्नात्मक रूप में जो वहाँ संकेत किया गया है उससे वे (१) निर्देश, (२) स्वामित्व, (३) साधन, (४) अधिकरण, (५) काल और (६) विधान ये छह अनुयोगद्वार फलित होते हैं। जैसे (१) अमुक पदार्थ क्या है ? (निर्देश), (२) वह किसके होता है ? (स्वामित्व), (३) वह किसके द्वारा होता है ? (साधन), (४) वह कहाँ रहता है ? (अधिकरण), (५) वह कितने काल रहता है ? (स्थिति) और (६) वह कितने प्रकार का है ? (विधान)। आठ अनुयोगद्वारों का नामनिर्देश ग्रन्थ में ही कर दिया गया है।' __ आगे गति-इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं और मिथ्यादृष्टि आदि चौदह गुणस्थानों का निर्देश करते हुए उन्हें अनुगन्तव्य कहकर उक्त निक्षेप-नियुक्ति आदि के द्वारा जान लेने की प्रेरणा की गई है (गा० ६-६)। इस प्रकार प्रारम्भिक भूमिका को बाँधकर आगे कृत प्रतिज्ञा के अनुसार ओघ और आदेश की अपेक्षा यथाक्रम से उन सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वारों के आश्रय से जीवों की विविध अवस्थाओं की प्ररूपणा की गई है। अब आगे हम यह देखना चाहेंगे कि 'जीवसमास की प्रस्तुत षट्खण्डागम के साथ कितनी समानता है और कितनी विशेषता। १. १०ख० के प्रथम खण्ड जीवस्थान में सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम इन आठ अनुयोगद्वारों (सूत्र १,१,७) के आभय से जीवसमासों (गुणस्थानों) का मार्गण (अन्वेषण) किया गया है। __जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है 'जीवसमास' में भी उन्हीं आठ अनुयोगद्वारों (गाथा ५) के आश्रय से जीवों के स्थानविशेषों का विचार किया गया है, इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में उन आठ अनुयोगद्वारों के विषय में सर्वथा समानता है। २. ष०ख० और 'जीवसमास दोनों ग्रन्थों में ज्ञातव्य के रूप में निर्दिष्ट उन चौदह मार्गणाओं का भी उल्लेख समान शब्दों में इस प्रकार किया गया है "गइ इंदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए चेदि।" —ष०ख० १,१,४ (पु० १) गइ इंदिए य काए जोए वेए कसाय नाणे य । संजम दंसण लेस्सा भव सम्मे सन्नि आहारे ॥-जीवसमास, गाथा ६ विशेषता इतनी है कि षट्खण्डागम में जहाँ उनका उल्लेख गद्यात्मक सूत्र में किया गया है १. किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं क इविहो उ भावो त्ति । छहि अणुओगद्दारेहिं सव्वे भावाऽणुगंतव्वा ।।-गाथा ४ (तत्त्वार्थसूत्र में इन छह अनुयोगद्वारों का उल्लेख इस प्रकार किया गया है-निर्देश स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः ।-(१-७) २. संतपयपरूवणया दव्वपमाणं च खित्त-फुसणा य । कालंतरं च भावो अप्पाबहुअं च दाराई ।।-गाथा ५ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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