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________________ अरहकम्मं सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म समं जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति।" –५०ख०, सूत्र ५,५,६८ (पु० १३, पृ०३४६) "से भयवं अरहं जिणे जाणए केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी सदेव-मणुयासरस्स लोगस्स पज्जाए जाणइ । तं जहा-आगई गई ठिई चयणं उपवायं भुत्तं पीयं कर पडिसेवियं आविकम्मं रहोकम्म लवियं कहियं मणो माणसियं सवलोए सव्वजीवाणं जाणमाणो पासमाणो एवं णं विहरई ॥१८॥ --आचार० द्वि० विभाग, पृ० ८८८ __ दोनों ग्रन्थगत इन सन्दर्भो में रेखांकित पदों को देखिए जो भाषागत विशेषता को छोड़कर सर्वथा समान हैं, अभिप्राय में भी कुछ भेद नहीं है। यहाँ यह विशेष स्मरणीय है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनके द्वारा अर्थरूप से प्ररूपित तत्त्व का व्याख्यान उसी रूप में क्रम से केवलियों, श्रुतकेवलियों और इतर आरातीय आचार्यों की परम्परा से बहुत समय तक मौखिक रूप में चलता रहा । अन्त में भद्रबाहु श्रुतकेवली के पश्चात् दीर्घकालीन दुभिक्ष के समय भगवान् महावीर की अनुगामिनी परम्परा दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गई। फिर भी कुछ समय तक तत्त्व का वह व्याख्यान उसी रूप में चलता रहा। पर उस दुभिक्ष के समय साधुसंघों के दक्षिण व उत्तर की ओर चले जाने पर वहाँ की भाषा आदि का प्रभाव उनके तत्त्वनिरूपण पर भी पड़ता रहा । अन्ततः उत्तरोत्तर होती हुई श्रुत की हानि को देखकर जब परम्परागत उस मौखिक तत्त्वप्ररूपणा को पुस्तकों के रूप में निबद्ध किया गया तब अपनी-अपनी स्मृति के आधार पर उस तत्त्व के व्याख्यान से सम्बद्ध गाथात्मक या गद्यात्मक सूत्र पुस्तकों के रूप में निबद्ध हो गये । इसलिए विवक्षित सन्दर्भ या वाक्य अमुक के द्वारा अमुक से लिये गये, यह निर्णय करना उचित न होगा। यह अवश्य है कि कुछ समय के पश्चात् विभिन्न देशों की भाषा, संस्कृति और ग्रन्थकारों की मनोवृत्ति अथवा सम्प्रदाय के व्यामोह वश उस तत्त्वप्ररूपणा पर भी प्रभाव पड़ा है व उसमें परिवर्तन एवं हीनाधिकता भी हुई है। ८. षट्खण्डागम और जीवसमास ___ 'जीवसमास' यह एक संक्षेप में जीवों की विभिन्न अवस्थाओं की प्ररूपणा करनेवाला महत्त्वपूर्ण आगम ग्रन्थ है। यह किसके द्वारा रचा गया, ज्ञात नहीं हो सका। ऋषभदेव केशरीमल श्वे० संस्था से प्रकाशित संस्करण में 'पूर्वभृत् सूरि सूत्रित' ऐसा निर्देश किया गया है। ग्रन्थ के प्रक्रियाबद्ध विषय के विवेचन की पद्धति और उसकी अर्थबहुल सुगठित संक्षिप्त रचना को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता परम्परागत विशिष्ट श्रुत के पारंगत रहे हैं, क्योंकि इसके बिना ऐसी सु व्यवस्थित अर्थबहुल संक्षिप्त ग्रन्थरचना, जिसमें थोड़े-से शब्दों के द्वारा अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों की प्ररूपणा विस्तार से की गई हो, सम्भव नहीं दिखती। ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचा गया है । इसकी समस्त गाथासंख्या २८६ है । इस प्रकार यह ग्रन्थप्रमाण में संक्षिप्त होकर भी अर्थ से गम्भीर व विस्तृत है । ___इसमें सर्वप्रथम मंगलस्वरूप चौबीस जिनवरों को नमस्कार करते हुए जीवसमास के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। तत्पश्चात् निक्षेप, नियुक्ति, छह अथवा आठ अनुयोगद्वारों एवं गति आदि चौदह मार्गणाओं के आश्रय से जीवसमासों' को अनुगन्तव्य (ज्ञातव्य) कहा गया है। १. 'जीवसमास' से दोनों ही ग्रन्थों में गुणस्थानों की विवक्षा रही है । २२२ / षट्खण्डागम-परिशीलम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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