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________________ और अव्यक्त मनवाले दोनों के मनोगत अभिप्राय को जानता है । " आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के अन्तर्गत पूर्वोक्त पाँच चूलिकाओं में जो तीसरी भावना नाम की चूलिका है उसमें निर्युक्तिकार के द्वारा दर्शनविशुद्धि की कारणभूत दर्शनभावना, ज्ञानभावना, चारित्रभावना एवं तपोभावना आदि का स्वरूप प्रकट किया गया है । वहाँ चारित्रभावना को अधिकृत मानकर उसके प्रसंग में भगवान् महावीर के गर्भ, जन्म, परिनिष्क्रमण (दीक्षा) और ज्ञान - कल्याणकों की प्ररूपणा की गई है । इस प्रसंग में वहाँ यह कहा गया है कि भगवान् महावीर के क्षायोपशमिक सामायिक चारित्र के प्राप्त हो जाने पर उनके मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया । तब वे उसके द्वारा अढ़ाई द्वीपों और दो समुद्रों के भीतर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त व व्यक्त मनवाले जीवों के मनोगत भावों को जानने लगे ।" इस प्रकार मन:पर्ययज्ञान के विषय के सम्बन्ध में इन दोनों ग्रन्थों का अभिप्राय बहुत कुछ समान दिखता है । यहाँ यह ध्यातव्य है कि षट्खण्डागम में 'व्यक्त मनवाले' इस अभिप्राय को प्रकट करने के लिए सूत्र (६४ व ७३ ) में 'वत्तमाणाणं' पद का उपयोग किया गया है । वहाँ धवला में यह शंका उठायी गई है कि मन के लिए सूत्र में 'मान' शब्द का उपयोग क्यों किया गया है । इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि 'एए छच्च समाणा' इस सूत्र के आधार से मकारवर्ती आकार के दीर्घ हो जाने से मन के लिए 'माण' शब्द व्यवहृत हुआ है। आगे प्रकारान्तर से उन्होंने विकल्प के रूप में 'वत्तमाणाणं' पद का अर्थ 'वर्तमान जीवों के' ऐसा करके यह अभिप्राय भी व्यक्त किया है कि वह ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञान वर्तमान जीवों के वर्तमान मनोगत तीनों कालों सम्बन्धी अर्थ को जानता है, अतीत-अनागत मनोगत विषय को नहीं जानता है । 3 दूसरा प्रसंग केवलज्ञान का है - आचारांग में कहा गया है कि भगवान् महावीर के केवलज्ञान के प्रकट हो जाने पर वे देव, असुर व मनुष्यलोक की प्रगति, गति, चयन व उपपाद आदि को जानते देखते थे । तुलना के लिए दोनों ग्रन्थगत उस प्रसंग को यहाँ दिया जाता है “सइं भगवं उप्पण्णणाण-दरिसी सदेवासुर- माणुसस्स लोगस्स आर्गादि गदि चयणोववादं बंध मोक्खं इड्ढि द्विदि जुदि अणुभागं तक्कं कलं माणो माणसियं भुत्तं कदं पडिसेविदं आदिकम्मं १. सूत्र ५, ५, ६०-७८ ( पु० १३ ) २. आचार द्वि० विभाग, पृ० ८८६, जैसाकि पीछे तत्त्वार्थवार्तिक के प्रसंग में कहा जा चुका है, त० वा० में भी इस सम्बन्ध में इस प्रकार से स्पष्ट किया गया है “व्यक्तमनसां जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम् । व्यक्तः स्फुटीकृतोऽर्थश्चिन्तया सुनिवर्तितो यैस्ते जीवा व्यक्तमनसस्तै रथं चिन्तितं ऋजुमतिर्जानाति, नेतरः ।" त०वा० १, २३, ६, पृ० ५८ ( सम्भव है धवलाकार के समक्ष उपर्युक्त आचारांग का और त०वा० का भी वह प्रसंग रहा हो ) । ३. धवला पु० १३, पृ० ३३७ ४. यहाँ भी मकारवर्ती आकार को दीर्घ हुआ समझना चाहिए । Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २२१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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