________________
धवला में उसका स्पष्टीकरण किया गया है।
१६. वेदनाअल्पबहुत्व विधान
प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्यास ये ही तीन अनुयोगद्वार यहाँ भी हैं। इनके आश्रय से उक्त ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों के अल्पबहुत्व के विषय में विचार किया गया है। धवला में यहां कुछ विशेष व्याख्येय नहीं रहा है ।
उपर्युक्त १६ अनुयोगद्वारों के समाप्त हो जाने पर प्रकृत 'वेदना' अनुयोगद्वार समाप्त हुआ है । इस प्रकार से षटखण्डागम का चौथा 'वेदना' खण्ड समाप्त होता है।
पंचम खण्ड : वर्गणा जैसाकि 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' से स्पष्ट हो चुका है, इस खण्ड में स्पर्श, कर्म और प्रकृति इन तीन अनुयोगद्वारों के साथ चौथे 'बन्धन' अनुयोगद्वार के अन्तर्गत बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इन चार अधिकारों में से वन्ध और बन्धनीय ये दो अधिकार भी समाविष्ट हैं। (१) स्पर्श अनुयोगद्वार
इसमें स्पर्शनिक्षेप व स्पर्शनयविभाषणता आदि १६ अवान्तर अनुयोगद्वार हैं। उनमें से 'स्पर्शनिक्षेप' के प्रसंग में स्पर्श के नामस्पर्श, स्थापनास्पर्श आदि तेरह भेद निर्दिष्ट किये गये हैं। इनके स्वरूप को 'मूलग्रन्थगत विषय-परिचय' में स्पष्ट किया जा चुका है।
नयविभाषणता-यहाँ कौन नय किन स्पर्शों को विषय करता है और किन को नहीं, इसका विचार किया गया है। एक गाथासूत्र द्वारा यहाँ यह भी स्पष्ट किया गया है कि नैगमनय सभी स्पर्शों को विषय करता है। किन्तु व्यवहार और संग्रह ये दो नय बन्धस्पर्श और भव्यस्पर्श इन दो स्पर्शों को स्वीकार नहीं करते हैं (सूत्र ५,३,७) । ___ इस प्रसंग में धवला में यह शंका की गई है कि ये दो नय बन्धस्पर्श को क्यों नहीं स्वीकार करते । उत्तर में कहा गया है कि बन्धस्पर्श का अन्तर्भाव कर्मस्पर्श में हो जाता है । यह कर्मस्पर्श दो प्रकार का है-कर्मस्पर्श और नोकर्मस्पर्श । उपर्युक्त बन्धस्पर्श इन दोनों के अन्तर्गत है, क्योंकि इन दोनों से पृथक् बन्ध सम्भव नहीं है।
प्रकारान्तर से उक्त शंका के समाधान में धवलाकार ने यह भी कहा है -अथवा बन्ध है ही नहीं, क्योंकि बन्ध और स्पर्श इन दोनों शब्दों में अर्थ भेद नहीं है । यदि कहा जाय कि बन्ध के बिना भी लोहा और अग्नि का स्पर्श देखा जाता है तो यह भी संगत नहीं है, क्योंकि संयोग अथवा समवाय रूप सम्बन्ध के बिना स्पर्श पाया नहीं जाता । अभिप्राय यह है कि लोहा और अग्नि का जो स्पर्श देखा जाता है वह उनके परस्पर संयोग सम्बन्ध से ही होता है।
आगे व्यवहार और संग्रहनय भव्यस्पर्श को क्यों नहीं विषय करते हैं, इसे भी स्पष्ट करते हुए धवला में कहा गया है कि विष, यंत्र, कूट, पिंजरा आदि का स्पर्श चूंकि वर्तमान में नहीं है--आगे होने वाला है, इसलिए उसे भी इन दोनों नयों की विषयता से अलग रखा गया है। कारण यह कि दोनों के स्पर्श के विना 'स्पर्श' यह संज्ञा घटित नहीं होती है। इसके अतिरिक्त अस्पृष्टकाल में तो उनका स्पर्श सम्भव नहीं है तथा स्पृष्टकाल में वह कर्म, नोकर्म, सर्व और
षटखण्डागम पर टीकाएँ /५०५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org