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________________ "अंतराणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-प्रोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं, णिरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण वेछावट्ठिसागरोवमाणि देसोणाणि ।" । -१० ख०, सूत्र १,६, १-४ “अन्तरं निरूप्यते । विवक्षितस्य गुणस्य गुणान्तरसंक्रमे सति पुनस्तत्प्राप्तेः प्राड्.मध्यमन्तरम् । तद् द्विविधम्-सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टे नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेण द्वे षषष्ठी देशोने सागरोपमानाम् ।" --स० सि०, पृ० ४० यहाँ विशेषता यह रही है कि मूल ष० ख० में प्रकृत अन्तर का कुछ स्वरूप नहीं प्रकट किया गया है, पर स० सि० में उसकी प्ररूपणा के पूर्व उसके स्वरूप का भी निर्देश कर दिया गया है। धवला में उसके स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उसकी प्ररूपणा के प्रारम्भ में अन्तर विषयक निक्षेप की योजना की गई है, जिसके आश्रय से प्रकृत में 'अन्तर' के अनेक अर्थों में कौन-सा अर्थ अभिप्रेत है, यह ज्ञात हो जाता है।' ०ख० में यहाँ ‘णत्थि अंतरं' के साथ 'णिरंतरं' पद का भी उपयोग किया गया है। स०सि० में 'नास्त्यन्तरम्' इतने मात्र से अभिप्राय के अवगत हो जाने से फिर आगे 'निरन्तरम्' पद का उपयोग नहीं किया गया है। दोनों ग्रन्थों में इसी प्रकार की समानता व विशेषता आगे शेष गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के प्रसंग में भी देखी जाती है। ७. भावानुगम दोनों ग्रन्थों में क्रमप्राप्त भावविषयक समानता भी देखी जाती है । यथा "भावाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छाइट्ठि त्ति को भावो? ओदइओ भावो । सासणसम्मादिट्टि ति को भावो? पारिणामिओ भावो । सम्मामिच्छादिट्रि त्ति को भावो ? खओवसमिओ भावो। असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो ? उवसमिओ वा खइओ वा खओवसमिओ वा भावो । ओदइएण भावेण पुणो असंजदो।" -ष ०ख०, सूत्र १,७,१-६ "भावो विभाव्यते ! स द्विविध:--सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टिरित्यौदयिको भावः। सासादनसम्यग्दृष्टिरिति पारिणामिको भावः । सम्यड्.मिथ्यादृष्टिरिति क्षायोपशमिको भावः । असंयतसम्यग्दृष्टिरिति औपशमिको वा क्षायिको वा क्षायोपशमिको वा भावः । उक्तं च ---Xxx। असंयतः पुनरोदयिकेन भावेन ।" -स०सि०, पृ० ५० इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में यह भावविषयक प्ररूपणा भी क्रमशः समान पद्धति में की गई है। स० सि० में इतनी विशेषता रही है कि असंयतसम्यग्दृष्टि भाव के दिखला देने के पश्चात् वहाँ 'उक्तं च' कहकर 'मिच्छे खलु ओदइओ' इत्यादि गाथा को उद्धृत किया गया है। ८. अल्पबहुत्वानुगम ष० ख० में जीवस्थान खण्ड का यह अन्तिम अनुयोगद्वार है । पूर्वोक्त सात अनुयोगद्वारों १. धवला, पु० ५, पृ० १-३ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | २०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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