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यहाँ यह प्रश्न उठता है कि धवलाकार ने जब प्रसंगप्राप्त उस पूरे सन्दर्भ को प्राकृत भाषा में निबद्ध किया है तब उन्होंने इन उदाहरणों के प्ररूपक अंश को संस्कृत में क्यों लिखा? यद्यपि धवलाकार ने अपनी इस टीका को संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषा में लिखा है, इसलिए यह प्रश्न उपस्थित नहीं होना चाहिए; क्योंकि धवला में विषय की प्ररूपणा करते हुए बीच-बीच में उन्होंने संस्कृत का भी सहारा लिया है। यही नहीं, कहीं-कहीं तो उन्होंने एक ही वाक्य में प्राकृत और संस्कृत दोनों शब्दों का उपयोग किया है, फिर भी यह प्रसंग कुछ शंकास्पद-सा बन गया है।
यह भी सम्भव है कि उपर्युक्त गद्यमय सन्दर्भ वर्तमान तिलोयपण्णत्ती और धवला दोनों से पूर्वकालीन किसी ग्रन्थ में रहा हो और प्रसंग के अनुसार कुछ शब्दों में परिवर्तन कर इन दोनों ग्रन्थों में उसे आत्मसात् कर लिया गया हो।
जैसा कि उपर्युक्त (११. तत्त्वार्थवार्तिक) के प्रसंग से स्पष्ट है, धवला में कहीं-कहीं प्रसंगानसार ग्रन्थनामनिर्देश के बिना अन्य ग्रन्थगत सन्दर्भक को आत्मसात् कर लिया गया है।
इन सब परिस्थितियों को देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में यह गद्यभाग धवला से लेकर आत्मसात् किया गया है।
तिलोयपण्णत्ती का स्वरूप
उपलब्ध तिलोयपण्णत्ती एक महत्त्वपूर्ण प्रामाणिक ग्रन्थ है। उसकी विषयविवेचन की पद्धति आगम-परम्परा पर आधारित, अतिशय व्यवस्थित और योजनाबद्ध है। वहाँ सर्वप्रथम मंगल के पश्चात् जो विस्तार से मंगल-निमित्तादि उन छह के विषय में चर्चा की गयी है, वह परम्परागत व्याख्यान के क्रम के आश्रय से की गयी है। ऐसी सैकड़ों गाथाओं का परम्परागत प्रवाह बहुत समय तक चलता रहा है, जिसका उपयोग आवश्यकतानुसार पीछे के ग्रन्थकारों ने यथाप्रसंग अपनी स्मृति के आधार पर किया है। इससे यह कहना संगत नहीं होगा कि तिलोयपण्णत्ती में जो उन मंगलादि छह का विवेचन किया गया है, वह धवला के आश्रय से किया गया है। प्रत्युत इसके विपरीत यदि यह कहा जाय कि धवलाकार ने ही तिलोयपण्णत्तीगत उस प्रसंग का अनुसरण किया है, तो उसे असम्भव नहीं कहा जा सकता।
। उक्त मंगलादि छह के विवेचन के पश्चात् ग्रन्थकार ने यह प्रतिज्ञा की है कि जिनेन्द्र के मुख से निर्गत व गणधरों के द्वारा पदसमूह में ग्रथित आचार्य-परम्परा से चली आ रही तिलोयपण्णत्ती (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) को कहता हूँ (गा० १,८५-८७)। ठीक इसके बाद उन्होंने उसमें वर्णनीय सामान्यलोक व नारकलोक आदि नौ महाधिकारों का उल्लेख कर दिया है।
-१,८८-६० इस प्रकार जिस क्रम से उन्होंने उन महाधिकारों का निर्देश किया है, उसी क्रम से उनकी प्ररूपणा करते हुए प्रत्येक महाधिकार के प्रारम्भ में उन अन्तराधिकारों का उल्लेख भी कर दिया है जिनके आश्रय से वहाँ प्रतिपाद्य विषय का विवेचन करना अभीष्ट रहा है। पश्चात तदनुसार ही उन्होंने योजनाबद्ध विषय का विचार किया है।
१. प्रथम 'सामान्य लोक' भूमिका रूप होने से वहाँ अवान्तर अधिकारों की सम्भावना नहीं
रही।
अनिदिष्टनाम ग्रन्थ / ६२३
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