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________________ यतचतुरस्रलोकसंस्थानोपदेशवद्वा । तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति ।"-पु० ४, पृ० १५७-५८ दोनों ग्रन्थगत इन गद्यांशों की समानता और कुछ विलक्षणता को देखते हुए कुछ विद्वानों का यह मत रहा है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती यतिवृषभाचार्य की रचना नहीं है और बहुत प्राचीन भी वह नहीं है, धवला के बाद की रचना होनी चाहिए। कारण यह कि धवला में तिलोयपण्णत्ति के नाम से उल्लिखित वह “दुगुण-दुगुण दुवुग्गो णिरंतरो तिरियलोगो" सूत्र वर्तमान तिलोयपण्णत्ती में उपलब्ध नहीं होता तथा उपर्युक्त गद्यभाग धवला से ही लेकर इस तिलोयपण्णत्ती में आत्मसात् किया गया है, इत्यादि।' पिछले गद्यभाग में जो पाठ परिवर्तित हुआ है, उसे देखते हुए ये कुछ प्रश्न अवश्य उठते (१) तिलोयपण्णत्ती के अन्तर्गत इस गद्यभाग में जो यह कहा गया है कि यह राजु के अर्धच्छेद के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश का अनुसरण करने वाली नहीं है, वह केवल तिलोयपण्णत्तिसुत्त का अनुसरण करने वाली है; उसे कैसे संगत कहा जा सकता है ? कोई भी ग्रन्थकार विवक्षित तत्त्व की प्ररूपणा को अपने ही ग्रन्थ के बल पर पुष्ट नहीं कर सकता है, किन्तु अपने से पूर्ववर्ती किसी प्रामाणिक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से उसे पुष्ट करता है। (२) इसी गद्यभाग में प्रसंगप्राप्त एक शंका का समाधान करते हुए परिकर्म के व्याख्यान को सूत्र के विरुद्ध कहकर अग्राह्य ठहराया गया है। यहाँ यह विचारणीय है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती के कर्ता के सामने वह कौन-सा सूत्र रहा है, जिसके विरु द्ध उस परिकर्म को विरुद्ध समझा जाय? धवलाकार के समक्ष तो षट्खण्डागम का यह सूत्र रहा है "खेत्तेण पदरस्स वेछप्पण्णंगुलस्यवग्गपडिभागेण ।"-सूत्र १,२,५५ (पु० ३)। इसके विरुद्ध होने से धवलाकार ने परिकर्म के उस व्याख्यान को अप्रमाण व्याख्यान घोषित किया है। (३) धवला के अन्तर्गत उपर्युक्त सन्दर्भ में जो एक विशेषता दृष्टिगोचर होती है, वह भी ध्यान देने योग्य है। उसमें स्वयम्भूरमणसमुद्र के आगे राजु के अर्धच्छेदों के अस्तित्व को सिद्ध करके धवलाकार ने जो यह कहा है कि यह राजु के अर्धच्छेदों के प्रमाण की परीक्षाविधि अन्य आचार्यों के उपदेश की परम्परा का अनुसरण नहीं करती है, फिर भी हमने तिलोयपण्णत्तिसूत्र के अनुसार ज्योतिषी देवों के भागहार के प्रतिपादक सूत्र पर आधारित युक्ति के बल से प्रकृत गच्छों के साधनार्थ उसकी प्ररूपणा की है। इसके लिए उन्होंने ये दो उदाहरण भी दिये हैंजिस प्रकार परम्परागत आचार्योपदेश के प्राप्त न होने पर भी हमने प्रसंगवश असंख्यात आवलिप्रमाण अवहारकाल को और आयत चतुरस्र लोक के आकार को सिद्ध किया है। १. देखिये 'जैन सिद्धान्त-भास्कर' भाग ११, कि १, पृ० ६५-८२ में 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ति और उसके रचनाकाल आदि का विचार' शीर्षक लेख (इस प्रसंग में 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ० ४१-५७ तथा तिलोयपण्णत्ती, भाग ३ की प्रस्तावना पृ० १५-२० भी द्रष्टव्य हैं।) २. धवला, पु० ४, पृ० १५७ ६२२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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