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इस प्रकार निर्दिष्ट क्रम से प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा करते हुए उनके समक्ष विवक्षित विषय के सम्बन्ध में जहाँ कहीं जो कुछ भी मतभेद रहा है, उसे उन्होंने ग्रन्थ के नामनिर्देशपूर्वक आचार्यविशेष के उल्लेख के साथ, अथवा 'पाठान्तर' के रूप में, स्पष्ट कर दिया है। इस प्रकार से ग्रन्थकार ने अपनी प्रामाणिकता को पूर्णतया सुरक्षित रखा है।
जिन गद्यांशों की ऊपर चर्चा की गयी है, अवान्तर अधिकारों के निर्देशानुसार उनमें प्ररूपित विषय की प्ररूपणा करनी ही चाहिए थी, भले ही वह गाथाओं में की जाती या गद्य में। तदनुसार ही प्रत्येक महाधिकार में विवक्षित विषय की प्ररूपणा वहाँ की गयी है।
प्रथम महाधिकार में गाथा २८२ में लोक के पर्यन्त भाग में वायुमण्डल से रोके गये क्षेत्र के घनकल, आठ पृथिवियों के नीचे वायुरुद्ध-क्षेत्र के घनफल और आठ पृथिवियों के धनफल के कथन की प्रतिज्ञा की गयी है। तदनुसार आगे गद्य में उक्त घनफलों के प्रमाण को स्पष्ट किया गया है।
जिस गद्यभाग में उस तीन प्रकार के घनफल को निकाला गया है, उसमें केवल लोक के पर्यन्त भाग में अवस्थित वायु से रोके गये क्षेत्र के घनफल का प्ररूपक गद्यांश ही ऐसा है जो धवला में भी उसी रूप में उपलब्ध होता है। उसको छोड़कर आठ पृथिवियों के नीचे वायुरुद्ध क्षेत्र के घनफल का प्ररूपक और आठ पृथिवियों के घनफल का प्ररूपक गद्यभाग धवला में नहीं पाया जाता है। तब ऐसी स्थिति में यह विचारणीय है कि आगे के शेष गद्यभाग की रचन जब तिलोयपण्णत्तिकार स्वयं करते हैं, तब उसमें से प्रारम्भ के थोड़े से गद्यांश को वे धवला सो क्यों लेंगे? इससे यही फलित होता है कि या तो वह पूरा गद्यभाग ग्रन्थकार के द्वारा ही लिखा गया है या फिर पूरा ही वह उसमें कहीं से पीछे प्रक्षिप्त हुआ है।
राज के अर्धच्छेद प्रमाण के प्ररूपक दूसरे गद्यभाग के विषय में पीछे विचार किया ही जा चुका है।
एक अन्य प्रश्न
तिलोयपण्णत्ती के रचयिता कौन हैं, इसका ग्रन्थ में कहीं कुछ संकेत नहीं मिलता है। उसके अन्त में ये दो गाथाएं उपलब्ध होती हैं -
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं ।। दट्ठण परिसहवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाठए घसहं ।। चुण्णिसरूवत्थ[च्छ] करणसरूवपमाण होइ किंजंत्तं [जंतं] ।
अट्ठसहस्सपमाणं तिलोयपण्णत्तिणामाए ।—ति०प०८,७६-७७ ___ इनके अन्तर्गत अभिप्राय को समझना कठिन दिखता है, फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से प्रथम गाथा में उस जिनेन्द्र को प्रणाम करने की प्रेरणा की गयी है, जो गणधरों में श्रेष्ठ, उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न, परीषहों के विजेता, यतिजनों में सर्वश्रेष्ठ और धर्मसूत्र के ज्ञापन
१. ति०प०, भा० २, परिशिष्ट पृ० ६६५ व १८७-८८ २. ति०५०, भा० १, पृ० ४३-५० ३. वही, पृ० ४३-४६ व धवला पु० ४, पृ० ५१-५५ ४. वही, ४६-५०
६२४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
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