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________________ बांधते हैं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। स्थितिबन्ध के प्रसंग में मूल कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति को प्रकट किया गया है।' षट्खण्डागम में जीवस्थान-चूलिका के अन्तर्गत प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन चूलिका में मूलउत्तर प्रकृतियों का उल्लेख किया गया है । छठी 'उत्कृष्ट स्थिति' चूलिका में विस्तार से मूलउत्तर प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति और सातवीं 'जघन्यस्थिति' चूलिका में उन्हीं की जघन्य स्थिति की प्ररूपणा की गई है। मूलाचार में आगे क्रमप्राप्त अनुभागबन्ध व प्रदेशबन्ध का विचार करते हुए अन्त में केवलशान की उत्पत्ति और मुक्ति की प्राप्ति को स्पष्ट किया गया है और इस अधिकार को समाप्त किया गया है। उपसंहार इस प्रकार मूलाचार के इस पर्याप्ति अधिकार में जो अनेक महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक विषयों की व्यवस्थित प्ररूपणा की गई है उसकी कुछ समानता यद्यपि प्रसंग के अनुसार प्रस्तुत षट्खण्डागम से देखी जाती है, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता है कि उसका आधार षट्खण्डागम रहा है। कारण यह है कि इन दोनों ग्रन्थों की वर्णनशैली भिन्न है । यथा १. षट्खण्डागम में विवक्षित विषय की प्ररूपणा प्राय: प्रश्नोत्तर शैली मे गद्यात्मक सूत्रों द्वारा की गई है। पर मूलाचार में प्रश्नोत्तर शैली को महत्त्व न देकर गाथासूत्रों में विवक्षित विषय की संक्षेप में विशद प्ररूपणा की गई है। २. षट्खण्डागम में विवक्षित विषय की प्ररूपणा में यथावयश्क कुछ अनुयोगद्वारों का निर्देश तो किया गया है, पर विवक्षित विषय की स्पष्टतया सूचना नहीं की गई है। किन्तु मूलाचार में प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में मंगलपूर्वक वहाँ विवक्षित विषयों के कथन की प्रतिज्ञा करते हुए तदनुसार ही उन विषयों की प्ररूपणा की गई है। ३. षट्खण्डागम में विषय की प्ररूपणा प्रायः गुणस्थान और मार्गणाओं के आधार से की गई है। किन्तु मलाचार में गुणस्थान और मार्गणा की विवक्षा न करके सामान्य से ही प्रतिपाद्य विषय की प्ररूपणा की गई है जो सरल व सुबोध रही है। ___४. षट्खण्डागम का प्रमुख वर्णनीय विषय कर्म सिद्धान्त रहा है । उससे सम्बद्ध होने के कारण उसके प्रथम जीवस्थान खण्ड में प्रोघ और आदेश के अनुसार जो जीवस्थानों की प्ररूपणा की गई है वह अन्य खण्डों की अपेक्षा अतिशय व्यवस्थित और क्रमबद्ध है। ___ मूलाचार का प्रमुख वर्णनीय विषय साधुओं का आचार रहा है। यही कारण है कि धवलाकार वीरसेन स्वामी ने उसका उल्लेख 'आचारांग' के नाम से किया है। यद्यपि उपर्युक्त पर्याप्ति अधिकार में प्ररूपित विषय साधु का आचार नहीं है, पर उससे सम्बद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का वह विषयभूत है, अतः ज्ञातव्य है । वृत्तिकार प्राचार्य वसुनन्दी ने उस पर्याप्ति १. मूलाचार १२,१८५-६७ व आगे २००-२०२ २. वही, १२,२०३-५ (मूलाचारगत यह चार प्रकार के कर्मबन्ध की प्ररूपणा तत्त्वार्थसूत्र के वें अध्याय में की गई उस कर्मबन्ध की क्रमबद्ध प्ररूपणा के सर्वथा समान है।) ३. धवला पु० ४, पृ० ३१६ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना | १५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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