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________________ अधिकार को 'सर्वसिद्धान्तकरणचरणस्वरूप' कहा है। इस परिस्थिति को देखते हुए अधिक सम्भावना तो यही है कि मूलाचार के कर्ता को आचार्य परम्परा से उन विषयों का ज्ञान प्राप्त था, जिसके आश्रय से उन्होंने इस ग्रन्थ की, विशेषकर उस पर्याप्ति अधिकार की रचना की है, तदनुसार ही उन्होंने आनुपूर्वी के अनुसार उसके कथन की प्रतिज्ञा भी है। दोनों ग्रन्थगत सैद्धान्तिक विषयों के विवेचन की इस पद्धति को देखते हुए ऐसा प्रतीत हाता है कि अंग-पूर्वधरों की श्रृंखला के लुप्त हो जाने पर पीछे जो सैद्धान्तिक विषयों का विवेचन होता रहा है वह दो धाराओं में प्रवाहित हुआ है, जिनमें एक धारा का प्रवाह षट्खण्डागम में और दूसरी धारा का प्रवाह मूलाचार व तत्त्वार्थसूत्र आदि में दृष्टिगोचर होता है। यह भी सम्भव है मुलाचार के रचियता को जो श्रत का उपदेश प्राप्त था वह षटखण्डागम की अपेक्षा भिन्न आचार्यपरम्परा से प्राप्त रहा है। कारण यह है कि इतना तो निश्चित है कि श्रतकेवलियों के पश्चात आचार्यपरम्परा में भी सम्प्रदाय भेद हो चका था, यह षटखण्डागम की टीका धवला में निर्दिष्ट अनेक मतभेदों से स्पष्ट है । यह भी नहीं कहा जा सकता कि मूलाचार के कर्ता के समक्ष प्रस्तुत षट्खण्डागम रहा है या नहीं। यह भी यहां ध्यातव्य है कि मूलाचार, विशेषकर उसके उपर्युक्त पर्याप्ति अधिकार में, जिन विषयों की प्ररूपणा की गई है उनमें से अधिकांश की प्ररूपणा उसी पद्धति से यथाप्रसंग तिलोयपण्णत्ती में भी की गई है । इतना ही नहीं, इन दोनों ग्रन्थों के अन्तर्गत कुछ गाथाएँ भी प्रायः शब्दशः समान उपलब्ध होती हैं। इन दोनों ग्रन्थों में से यदि कोई एक ग्रन्थ दूसरे ग्रन्थ के रचयिता के समक्ष रहा हो व उसने अपने ग्रन्थ की रचना में उसका उपयोग भी किया हो तो इसे असम्भव नहीं कहा जा सकता है।" मूलाचार का कर्तृत्व मूलाचार के कर्ता के विषय में विद्वान् प्रायः एकमत नहीं हैं । मा० दि० जन ग्रन्थमाला से प्रकाशित उसके संस्करण में उसे वट्टकेराचार्य विरचित सूचित किया गया है। पर यह नाम कुछ अद्भुत-सा है और वह भी एकरूप में नहीं उल्लिखित हुआ है। इससे कुछ विद्वान उसके १. “शीलगुणाधिकारं व्याख्याय सर्वसिद्धान्तकरणचरणस्वरूपं द्वादशाधिकारं पर्याप्त्याख्यं प्रतिपादयन् मंगलपूर्विकां प्रतिज्ञा आह"--मूलाचार वृत्ति १२-१ की उत्थानिका। २. काऊण णमोक्कारं सिद्धाणं कम्मचक्क मुक्काणं । पज्जत्तीसंगहणी वोच्छामि जहाणुपुन्वीयं ।।-मुलाचार १२-१० ३. ति० प० भाग २ की प्रस्तावना प० ४२-४४ में 'मूलाचार' शीर्षक । ४. तिलोयपण्णत्ती का वर्तमान रूप कुछ सन्देहास्पद है, उसमें पीछे प्रक्षेप हुआ प्रतीत होता है। किन्तु उसकी रचनापद्धति, वर्णनीय विषय की क्रमबद्ध व अतिशय व्यवस्थित प्ररूपणा तथा उसमें उल्लिखित अनेक प्राचीन ग्रन्थों के नामों को देखते हुए उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं रहता। विशेष जानकारी के लिए भाग २ की प्रस्तावना पृ० ६-२० में 'ग्रन्थकार यतिवृषभ' और ग्रन्थ का रचनाकाल शीर्षक द्रष्टव्य हैं। १६० / बट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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