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विषय में सन्देह करते हैं । इसके अतिरिक्त उसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में उसके कुन्दकुन्दाचार्य विरचित होने का भी उल्लेख देखा जाता है ।
स्व० पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने उसके आचार्य कुन्दकुन्द विरचित होने की सम्भावना भी व्यक्त की है । '
उधर स्व० पं० नाथू रामजी प्रेमी उसे प्राय: आचार्य वट्टकेरि विरचित मानते रहे हैं । "
मूलाचार के अन्तर्गत विषय की प्ररूपणा पद्धति को, विशेषकर इस 'पर्याप्तिसंग्रहणी' अधिकार की विषयवस्तु और उसके विवेचन की पद्धति को देखते हुए वह आ० कुन्दकुन्द के द्वारा रचा गया है, ऐसा प्रतीत नहीं होता । कुन्दकुन्दाचार्य के उपलब्ध अध्यात्म ग्रन्थों में कहीं भी इस प्रकार का विषय और उसके विवेचन की पद्धति नहीं देखी जाती है ।
जैसा कुछ भी हो, ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय और उसके विवेचन की पद्धति को देखते हुए उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं रहता ।
३. षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र
तत्त्वार्थ सूत्र यह आचार्य उमास्वाति अपरनाम गृद्धपिच्छाचार्य विरचित एक महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थ है । इसका रचना काल सम्भवतः विक्रम की दूसरी-तीसरी शताब्दी है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में यहाँ मंगलस्वरूप से जो मोक्षमार्ग के नेता, वीतराग और सर्वज्ञ को इन्हीं तीन गुणों की प्राप्ति के लिए नमस्कार किया गया है उससे उसकी आध्यात्मिकता स्पष्ट है । वह शब्दसन्दर्भ में संक्षिप्त होने पर भी अर्थ से विशाल व गम्भीर है। यही कारण है कि उसपर सर्वार्थ सिद्धि तत्त्वार्थवार्तिक और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे विस्तारपूर्ण टीकाग्रन्थ रचे गये हैं । उसका दूसरा नाम 'मोक्षशास्त्र' भी प्रसिद्ध है, जो सार्थक ही है । कारण यह कि उसकी रचना मोक्षप्राप्ति के उद्देश्य से की गई है, यह सर्वार्थसिद्धि की उत्थानिका से प्रकट है 13
मोक्ष का अर्थ कर्मबन्धन से छूटना है। वह जन्ममरण स्वरूप संसारपूर्वक होता है । उस संसार के कारण आस्रव और बन्ध तथा मोक्ष के कारण संवर और निर्जरा हैं । उक्त आस्रव आदि जीव और अजीव पौद्गलिक कर्म - से सम्बद्ध हैं । इस प्रकार इस ग्रन्थ में आत्मोत्थान में प्रयोजनीभूत इन्हीं जीव अजीवादि सात तत्त्वों का विचार किया गया है । इसीलिए
१. 'पुरातन - जैनवाक्य सूची' की प्रस्तावना पृ० १८-१६
२. 'जैन साहित्य और इतिहास' द्वितीय संस्करण पृ० ५४८-५३
३. कश्चिद् भव्यः प्रत्यासन्ननिष्ठः प्रज्ञावान् "निर्ग्रन्थाचार्यवर्यमुपसद्य सविनयं परिपृच्छति स्म - भगवन् किं नु खलु आत्मने हितं स्यादिति । स आह मोक्ष इति । स एव पुनः प्रत्याह किस्वरूपोऽसौ मोक्षः कश्चास्य प्राप्त्युपाय इति । आचार्य प्राह । स० सि० १-१
(उत्थानिका) ।
४. प्रथम अध्याय भूमिकास्वरूप है । २, ३ व ४ इन तीन अध्यायों में जीव के स्वरूप व उसके भेद-प्रभेदों के निर्देशपूर्वक निवासस्थानों को प्रकट किया गया है । ५ वें में अजीव, ६-७ वें में आस्रव ८ दें में बन्ध, हवें में संवर और निर्जरा तथा १० वें अध्याय में मोक्ष इस प्रकार से वहाँ इन सात तत्त्वों की प्ररूपणा की गई है ।
घट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १६१
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