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________________ उन्होंने आगे 'उक्तं च' के निर्देश के साथ इस प्राचीन गाथा को उद्धृत किया है गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य। उवजोगो विय कमसो वोसं तु पावणा भणिया॥ जीवकाण्ड में यह गाथा मंगलगाथा के पश्चात् दूसरी गाथा के रूप में ग्रन्थ का अंग बना ली गई है। २. जीवकाण्ड में आगे कहा गया है कि संक्षेप व अोघ यह गुणस्थान की संज्ञा है जो मोह और योग के निमित्त से होती है तथा विस्तार और आदेश यह मार्गणा की संज्ञा है जो अपने कर्म के अनुसार होती है। ०ख० में प्रायः सर्वत्र ही विवक्षित विषय का विवेचन ओघ और आदेश के क्रम से किया गया है। धवलाकार ने 'ओघ' और 'आदेश' को स्पष्ट करते हुए ओघ का अर्थ सामान्य व अभेद और आदेश का अर्थ विशेष व विस्तार किया है । तदनुसार ओघ से गुणस्थान और आदेश से मार्गणास्थान ही विवक्षित रहे हैं। ___ इस प्रकार जीवकाण्ड में इस मूल षट्खण्डागम और धवला का पूर्णतया अनुसरण किया गया है। १० ख० में प्रायः प्रत्येक अनुयोगद्वार के प्रारम्भ में ओघ और आदेश से विवक्षित विषय की प्ररूपणा करने की प्रतिज्ञा करते हुए तदनुसार ही उसका विवेचन प्रथमतः गुणस्थानों के आश्रय से और तत्पश्चात् गत्यादि मार्गणाओं के आश्रय से किया है। इसी प्रकार जीवकाण्ड में भी प्रथमतः ओघ के अनुसार गुण स्थानों के स्वरूप को प्रकट किया गया है और तत्पश्चात् जीवसमास आदि का निरूपण करते हुए आगे उन गति आदि १. यह गाथा पंचसंग्रह में इसी रूप में उपलब्ध होती है (१-२)। तिलोयपण्णत्ती (गा. २-२७२,४-४१० व ८-६६२) में भी वह उपलब्ध होती है। विशेषता यह रही है कि वहां प्रसंग के अनुसार उसके उत्तरार्थ में कुछ शब्दपरिवर्तन कर दिया गया है। यथा-- गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणा कमसो । उवजोगा कहिदव्वा णारइयाणं जहाजोगं ॥२-२७२ २. संखेओ ओघो त्ति य गुणसण्णा सा च मोह-जोगभवा । वित्थारादेसोत्ति य मग्गणसण्णा सकम्मभवा ।।--गो०जी०३ इसका मिलान धवला के इस प्रसंग से कीजिए "ओघेण सामान्ये नाभेदेन प्ररूपणमेकः । अपरः आदेशेन भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । धवला पु० १, पृ० १६०; ओघेन-ओघ वृन्दं समूहः संघातः समुदयः पिण्डः अवशेषः अभिन्न: सामान्यमिति पर्यायशब्दाः । गत्यादिमार्गणस्थान रविशेषितानां चतुर्दशगुणस्थानानां प्रमाण-प्ररूपणमोघनिर्देशः । धवला पु० ३, पृ०६ (यह द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में कहा गया है)। आदेशः पृथग्भावः पृथक्करणं विभजनं विभक्तीकरणमित्यादयः पर्याशब्दाः । गत्यादिविभिन्नचतुर्दशजीवसमासप्ररूपणमादेशः ।"-पु० ३, पृ० १० ३. गुणस्थानों व गुणस्थानातीत सिद्धों का अस्तित्व १५ (६-२३) सूत्रों में दिखलाकर आगे समस्त सूत्रों (२४-१७७) में मार्गणाओं का निर्देश है (पु० १) ३०२ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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