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________________ “से कि तं नामावस्सयं? जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सये त्ति नाम कीरए । से तं नामावस्सयं ।" -अनु० सूत्र १० इन दोनों सूत्रों में शब्द और अर्थ दोनों से समानता है। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ जीव-अजीव विषयक आठ भंगों का उल्लेख है वहाँ अनुयोगद्वार सूत्र में जीव-अजीव से सम्बन्धित एक वचन व बहुवचन सम्बन्धी दो संयोगी भंगों को छोड़कर शेष छह का उल्लेख किया गया है। २. इसी प्रकार स्थापना के सम्बन्ध में भी उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों के इन सूत्रों को देखिए "जा सा ठवणकदी णाम सा कट्टकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जति कदि त्ति सा सव्वा ठवणकदी णाम ।" -ष०ख० सत्र ५२० ___ 'से किं ठवणावस्सयं ? जण्णं कट्टकम्मे वा चित्तकम्मे वा पोत्थकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगा वा सब्भावठवणाए वा असबभावठवणाए वा आवस्सए त्ति ठवणा ठविज्जति । से तं ठवणावस्सयं ।" -अनु० सूत्र ११ इन दोनों में भी अर्थ की अपेक्षा तो समानता है ही, शब्द भी वे ही हैं। विशेष इतना है कि ष० ख० में जहाँ 'कट्टकम्म' आदि के साथ बहुवचन प्रयुक्त हुआ है वहाँ अनुयोगद्वार में एक वचन प्रयुक्त हुआ है। इसके अतिरिक्त ष० ख० में 'लेण्ण' कर्म आदि कुछ अन्य कर्मों का भी निर्देश है। उधर अनुयोगद्वार में 'गंथिम-वेढिम'' आदि का उल्लेख ष०ख० की अपेक्षा अधिक हुआ है। ३. ष० ख० में आगमद्रव्यकृति का स्वरूप इस प्रकार कहा गया है "जा सा आगमदो दव्वकदी णाम तिस्से इमे अट्टाहियारा भवंति–दिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंधसमं णामसमं घोससमं। जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया।" - १० ख० सूत्र ४, १, ५४-५५ लगभग इन्हीं शब्दों में आगम-द्रव्य-आवश्यक का स्वरूप अनुयोगद्वार में इस प्रकार कहा गया है --- "से किं तं आगमतो दवावस्सयं? जस्स णं आवस्सये त्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं णामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलियं अमिलियं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठो?विप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं । से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परियट्टणाए धम्मकहाए णो अणुप्पेहाए । कम्हा ? अणुओगो दव्वमिदि कटु ।"--सूत्र १४ दोनों ग्रन्थगत इन सूत्रों में उपयुक्त अनेक शब्द प्रायः उसी रूप में आगे पोछे व्यवहृत हुए हैं । अभिप्राय समान ही है। इस प्रकार शब्द व अर्थ की समानता के साथ यह एक विशेषता १. गंथिम, वेढि (दि) म, पूरिम और संघादिम ये शब्द ष० ख० सूत्र ४,१,६५ (पु० ६) में प्रयुक्त हुए हैं। २६४ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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