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________________ रचा गया है । ' आगे प्रकारान्तर से उसकी रचना के विषय में ऊहापोह करते हुए कहा गया है कि ईसवी सन् की दूसरी शती में किसी समय उसके रचे जाने में बाधा आती नहीं दिखती है । किसी भी हालत में पूर्व में बतलाये गये प्रमाण के अनुसार विक्रम सं० ३५७ के पीछे की तो वह रचना अथवा संकलन हो ही नहीं सकता । इस प्रकार यहाँ संक्षेप में प्रकृत अनुयोगद्वार के रचयिता और उसके रचनाकाल के विषय में सम्पादकों का क्या अभिप्राय रहा है, इसे स्पष्ट करके आगे उसमें चर्चित विषय का दिग्दर्शन कराया जाता है - प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्र गद्यात्मक सूत्रों में रचा गया है; बीच-बीच में कुछ गाथाएँ भी उसमें हैं । समस्त सूत्र संख्या ६०६ और गाथा संख्या १४३ है । सर्वप्रथम यहाँ पाँच ज्ञानों का उल्लेख करके उनमें स्थापनीय चार ज्ञानों को स्थगित कर श्रुतज्ञान के उद्देश, समुद्द ेश, अनुज्ञा और अनुयोगविषयक प्रवर्तन की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के भी उद्देश, समुद्देश, अनुज्ञा और अनुयोगविषयक कथन की सूचना करते हुए प्रथमतः उत्कालिक अंगबाह्य स्वरूप आवश्यक के अनुयोगों का विचार किया गया है। तदनुसार आवश्यक, श्रुत, स्कन्ध और अध्ययन इनका निक्षेप करूँगा, ऐसी प्रतिज्ञा करते हुए उन चारों में से प्रथम तीन के विषय में निक्षेप की योजना की गई है । (सूत्र १-७२ ) आगे चलकर आवश्यक के अन्तर्गत सामायिक आदि छह अध्ययनों का उल्लेख करते हुए प्रथम 'सामायिक' अध्ययन के विषय में उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगद्वारों का निर्देश किया गया है और तत्पश्चात् यथाक्रम से उनके भेद - प्रभेदों की चर्चा इन सूत्रों में की गई है १. उपक्रम – सूत्र ७६-६१. प्रकारान्तर से भी सूत्र ६२-५३३ २. निक्षेप - सूत्र ५३४-६०० ३. अनुगम - सूत्र ६०१-६०५ ४. नय — सूत्र ६०६ ( गाथा १३६-४१) इस प्रकार संक्षेप में अनुयोगद्वार के विषय का परिचय कराया। आगे यहाँ यह विचार किया जाता है कि विषयविवेचन की दृष्टि से षट्खण्डागम के साथ उसकी कहाँ कितनी समानता है तथा कहाँ कितनी उसमे विशेषता भी है १. षट्खण्डागम के चौथे वेदना खण्ड के अन्तर्गत दो अनुयोगद्वारों में प्रथम ' कृति ' अनुयोगद्वार है । उसमें कृति के नामकृति, स्थापनाकृति आदि सात भेदों का निर्देश है । उनमें प्रथम नामकृति का स्वरूप इस प्रकार प्रकट किया गया है- - "जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणं वा, अजोवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवस्स च, अजीवाणं च जीवाणं च अजीवस्स च, जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि कदित्ति सा सव्वा णामकदी णाम ।" - पु०, ६, सूत्र ५१ अनुयोगद्वार में इसी प्रकार का सूत्र नाम अवश्य के प्रसंग में इस प्रकार कहा गया है— १. गुजराती प्रस्तावना, पृ० ४६-५० २. वही, ५०-५१ Jain Education International षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / २६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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