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________________ क० प्र० में ध्र वाचित्तवर्गणा के आगे अध्रु वाचित्तवर्गणा का निर्देश किया गया है । इसके लक्षण को स्पष्ट करते हुए मलयगिरि सूरि कहते हैं कि जिन वर्गणाओं के मध्य में कुछ वर्गणाएँ लोक में कदाचित् होती हैं और कदाचित् नहीं होती हैं उनका नाम अध्र वाचित्त-वर्गणा है । इसीलिए उन्हें सान्तर-निरन्तर कहा जाता है।' इस प्रकार सान्तर-निरन्तरवर्गणा और अध्र वाचित्तवर्गणा इनमें कुछ शब्द भेद ही है अभिप्राय दोनों का समान है। मलयगिरि सूरि ने उनका दूसरा नाम सान्तर-निरन्तर भी प्रकट कर दिया है। (४) दोनों ही ग्रन्थों में इन वर्गणाओं की संख्या का कोई उल्लेख नहीं किया गया है । फिर भी ष० ख० की टीका धवला में उनका विवेचन करते हुए जहाँ २३ क्रमांक दिए गये हैं वहाँ क० प्र० की मलयगिरि विरचित टीका में उनकी प्ररूपणा करते हुए २६ क्रमांक दिय गए हैं। इसका कारण यह है कि धवला में प्रारम्भ में एकप्रदेशिक, संख्येयप्रदेशिक, असंख्येयप्रदेशिक और अनन्तप्रदेशिक इन चार वर्गणाओं को गणनाक्रम में ले लिया गया है । पर जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, कर्मप्रकृति मूल में और उसकी मलयगिरि विरचित टीका में उन चारों का उल्लेख करते हुए भी उन्हें पृथक्-पृथक् गणनाक्रम में न लेकर एक अग्रहणवर्गणा के अन्तर्गत कर लिया गया है। कारण यह कि वे चारों ग्रहण योग्य नहीं हैं। धवलाकार को भी वह अभीष्ट है। इस प्रकार क०प्र० टीका में ३ अंक कम हो जाने से २० (२३३) रह जाते हैं। इसके अतिरिक्त धवला में औदारिक, अग्रहण, वैक्रियिक, अग्रहण, आहारक और अग्रहण इन छह को आहार और अग्रहण इन दो वर्गणाओं के अन्तर्गत लिया गया है। इस प्रकार क० प्र० में धवला की अपेक्षा चार (६-२- ४) अधिक रहते हैं। साथ ही क० प्र० में प्राणापान और अग्रहण इन दो अन्य वर्गणाओं को भी ग्रहण किया गया है, जिन्हें धवला में नहीं ग्रहण किया गया। इस प्रकार छह के अधिक होने से क० प्र० में उनकी संख्या छब्बीस (२०+-४+२) निर्दिष्ट की गई है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में टीका की अपेक्षा वर्गणाओं के क्रमांकों में कुछ भिन्नता के होने पर भी मूलग्रन्थों की अपेक्षा उनके उल्लेख में समानता ही रहती है । यहाँ इन दोनों ग्रन्थों में विषय की अपेक्षा उदाहरणपूर्वक कुछ समानता प्रकट की गई है। अन्य भी कुछ ऐसे विषय हैं, जिनमें परस्पर दोनों ग्रन्थों में समानता देखी जाती है । जैसे__ष० ख० में वेदनाद्रव्यविधान-चूलिका में प्रसंग पाकर उनतीस (१४५-७३) सूत्रों में योगविषयक अल्पबहुत्व व उसके गुणकार की प्ररूपणा की गई है। क० प्र० में भी उसकी प्ररूपणा ठीक उसी क्रम से की गई है। विशेषता यह है कि ष०ख० में जहाँ उसकी प्ररूपणा विशदतापूर्वक २६ सूत्रों में की गई है वहाँ कर्मप्रकृति में उसकी प्ररूपणा संक्षेप से इन तीन गाथाओं में कर दी गई है सव्वत्थोवो जोगो साहारणसहमपढमसमयम्मि । बायरबिय-तिय-चउरमण-सन्नपज्जत्तगजहन्नो॥ १. क० प्र०, पृ० ३६/१ (गा० १६) २. ष० ख० सूत्र ४,२,४,१४४-७३ (पु० १०, पृ० ३६५-४०३ १६६/ षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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