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________________ प्रदेशों का उल्लेख किया है । टीकाकार मलयगिरि सूरि ने इनका उल्लेख क्रम से परमाणुवर्गणा, एक-द्वि-त्रिप्रदेश आदि संख्येय वर्मणा, असंख्येयवर्गणा और अनन्तवर्गणाओं के रूप में ही किया है तथा उन्हें उन्होंने अग्रहणप्रायोग्य कहा है । अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदायरूप वर्गणाओं में किन्हीं को ग्रहणप्रायोग्य और किन्हीं को अग्रहणप्रायोग्य कहा है। . ___गाथा में आगे अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण परमाणुओं के समुदाय रूप आहार वर्गणा का निर्देश करते हुए उसे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक इन तीन शरीरविषयक निर्दिष्ट किया गया है।' उपर्युक्त गुणकार के प्रसंग में धवला में कहा गया है कि संख्येय प्रदेशिक वर्गणाओं से असंख्येयप्रदेशिक वर्गणाएँ असंख्यातगुणी हैं। गुणकार का प्रमाण असंख्यात लोक है। अनन्तप्रदेशिक वर्गणाविकल्पों का गुणकार अभव्यों से अनन्तगुणा और सिद्धों के अनन्तवें भाग प्रमाण है। क० प्र० को उपर्युक्त गाथा (१८) में आहारवर्गणा को औदारिक आदि तीन शरीरों की कारणभूत कहा गया है। धवला में आहार द्र व्यवर्गणा के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के योग्य पुद्गलस्कन्धों का नाम आहार वर्गणा है। इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में प्ररूपित इस विषय में पूर्णतया समानता है। (२) १० ख० में कार्मण द्रव्यवर्गणा के पश्चात् ध्र वस्कन्धवर्गणा का निर्देश किया गया है। इसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि 'ध्र वस्कन्ध' का निर्देश अन्तदीपक है, इसलिए इससे पूर्व की सब वर्गणाओं को ध्रुव ही-अन्तर से रहित-ग्रहण करना चाहिए।' क०प्र० में इस ध्र वस्कन्धवर्गणा के स्थान में 'ध्र व अचित्त' वर्गणा का निर्देश किया गया है। उसके लक्षण का निर्देश करते हुए टीकाकार मलयगिरि सूरि कहते हैं कि जो वर्गणाएँ लोक में सदा प्राप्त होती हैं उनका नाम ध्र वअचित्तवर्गणा है। इसे आगे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि इन वर्गणाओं के मध्य में अन्य उत्पन्न होती हैं और अन्य विनष्ट होती हैं, इनसे लोकविरहित नहीं होता। अचित्त उन्हें इसलिए समझना चाहिए कि जीव उन्हें कभी ग्रहण नहीं करता है। ___इस प्रकार दोनों ग्रन्थों में यथाक्रम से निर्दिष्ट ध्र वस्कन्धवर्गणा और ध्र वअचित्तवर्गणा इन दोनों में केवल शब्दभेद ही है, अभिप्राय में कुछ भी भेद नहीं है। (३) ष० ख० में उसके आगे सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा का निर्देश किया गया है। उसके स्पष्टीकरण में धवलाकार ने कहा है कि यह अन्तर के साथ निरन्तर चलती है, इसलिए इसकी 'सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा' संज्ञा है । १. क० प्र० (ब० क०) मलय० वृत्ति १८-२०, पृ० ३२/२ २. धवला पु० १४, पृ० ५८-५६ ३. पु० १४, पृ० ५६ ४. वही पृ० ६४ ५. क० प्र० (ब० क०) मलय० वृत्ति, पृ० ३५/२ ६. धवला पु० १४, पृ० ६४ षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १९५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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