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के द्वारा सम्भव है वसी वह दर्शन के द्वारा सम्भव नहीं है। इससे भी उन दोनों में भिन्नता निश्चित है। ___अन्तरंग और बहिरंग सामान्य के ग्रहण को दर्शन तथा अन्तरंग और बहिरंग विशेष के ग्रहण को ज्ञान मानकर यदि उन दोनों में भेद माना जाय तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि वस्तु सामान्य-विशेषात्कम है, अतः सामान्य का ग्रहण अलग और विशेष का ग्रहण अलग हो; यह घटित नहीं होता है-दोनों का ग्रहण एक साथ होनेवाला है। ऐसा न मानने पर "दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं" इस आगमवचन के साथ विरोध आता है। इससे सिद्ध है कि ज्ञान सामान्य-विशेषात्मक बाह्य पदार्थों को तथा दर्शन सामान्य-विशेषात्मक आत्मस्वरूप को ग्रहण करता है।
इस पर यदि यह कहा जाय कि दर्शन का वैसा लक्षण मानने पर “सामान्य का जो ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं"' इस आगमवचन के साथ विरोध का प्रसंग प्राप्त होता है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त आगमवचन में सामान्य ग्रहण से आत्मा का ग्रहण ही विवक्षित है । कारण यह कि वह आत्मा समस्त पदार्थों में साधारण है। उसी आगम वचन में आगे 'बाह्य पदार्थों के आकार को अर्थात् प्रतिकर्मव्यवस्था को न करके' जो यह कहा गया है उससे भी यह स्पष्ट है कि 'सामान्य' शब्द से आत्मा ही अपेक्षित है। आगे उक्त आगम-वचन म पदार्थों की विशेषता को न करके' और भी जो यह कहा गया है उससे भी उपर्युक्त अभिप्राय की पुष्टि होती है।
प्रकारान्तर से आगे अवलोकनवृत्ति को जो दर्शन कहा गया है वह भी उपर्युक्त अभिप्राय का पोषक है। कारण यह कि 'आलोकते इति आलोकनम्' इस निरुक्ति के अनुसार आलोकन का अर्थ अवलोकन करनेवाला (आत्मा) होता है, उसके आत्मसंवेदन रूप वर्तन को यहाँ दर्शन कहा है।
आगे जाकर विकल्परूप में प्रकाशवृत्ति को भी दर्शन कहा गया है । यह लक्षण भी उसका पूर्वोक्त लक्षणों से भिन्न नहीं है, क्योंकि प्रकाश का अर्थ ज्ञान है, उसके लिए आत्मा की वृत्ति (प्रवृत्ति या व्यापार) होती है. यह दर्शन का लक्षण है। अभिप्राय यह है कि विषय और विषयी (इन्द्रिय) के सम्बन्ध के पूर्व जो अवस्था होती है उसका नाम दर्शन है। यह विषय और विषयी के सम्पात की पूर्व अवस्था आत्मसंवेदनस्वरूप ही है। अतः इसका अभिप्राय भी पूर्वोक्त लक्षणों से भिन्न नहीं है।'
इस प्रकार प्रसंगवश यहाँ दर्शनविषयक कुछ विचार किया गया। अनन्तर क्रमप्राप्त दर्शन मार्गणा में चक्षुदर्शनी आदि चार के अस्तित्व के प्ररूपक सूत्र (१,१,१३१) की व्याख्या करते हुए धवला में दर्शन के विषय में प्रकारान्तर से विचार किया गया है। वहाँ चक्षुदर्शन के लक्षण का निर्देश करते हुए कहा गया है कि चक्षु से जो सामान्य अर्थ का ग्रहण होता
१. जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कटुमायारं।
अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिदि भण्णदे समए । धवला पु० १, पृ० १४६ तथा पु० ७, पृ० १०० में उद्धृत । अनुयोगद्वार की हरिभद्र
विरचित वृत्ति (पृ० १०३) में भी यह उद्धृत है । २. इस सबके लिए धवला पु० १, पृ० १४५-४६ द्रष्टव्य हैं।
बट्लण्डागम पर टीकाएँ । ३७७
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