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________________ से हवीं 'गति-आगति' चलिका निकली है।' जैसा कि पूर्व में निर्देश किया जा चुका है, धवलाकार ने 'एत्तो इमेसि' आदि सूत्र (२) की व्याख्या करते हुए उसमें प्रयुक्त 'एत्तो' पद से प्रमाण को ग्रहण किया है। सूत्रकार भगवान् पुष्पदन्त को उससे क्या अभिप्रेत रहा है, इसे यहाँ तक धवला में विस्तार से स्पष्ट किया गया है। ऊपर के इस विस्तृत विवेचन से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रस्तुत जीवस्थान खण्ड के अन्तर्गत सत्प्ररूपणादि आठ अनुयोगद्वार और प्रकृतिसमुत्कीर्तनादि (७) चूलिकाएँ बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत दूसरे अग्रायणीय पूर्व के कृति-वेदनादि २४ अनयोगद्वारों में चयनलब्धि नामक चौथे कर्मप्रकृतिप्राभत से निकली हैं। ___ आठवी 'सम्यक्त्वोत्पत्ति' चूलिका दृष्टिवाद अंग के दूसरे भेदस्वरूप 'सूत्र' से और गतिआगति नाम की हवीं चूलिका उसी के पांचवें भेदभूत व्याख्याप्रज्ञप्ति से निकली हैं । आगे के क्षद्रकबन्ध आदि शेष पाँच खण्ड भी उपर्यक्त कर्मप्रकृतिप्राभूत के यथासम्भव भेद -प्रभेदों से निकले हैं। ___ उन सबके उद्गम स्थानों को संक्षेप से षट्खण्डागम १०१ की प्रस्तावना पृ० ७२-७४ की तालिकाओं में देखा जा सकता है: दर्शनविषयक विचार "गइ इंदिए" आदि सूत्र (१,१,२) में निर्दिष्ट गति व इन्द्रिय आदि चौदह मार्गणाओं के स्वरूप आदि को स्पष्ट करते हए धवला में दर्शनमार्गणा के प्रसंग में दर्शनविषयक विशेष विचार किया गया है। वहाँ सर्वप्रथम 'दृश्यते अनेनेति दर्शनम्' इस निरुक्ति के अनुसार 'जिसके द्वारा देखा जाता है उसका नाम दर्शन है', इस प्रकार से दर्शन का स्वरूप निर्दिष्ट किया है। इस पर यहाँ यह शंका हो सकती थी कि चक्षु इन्द्रिय और प्रकाश के द्वारा भी तो देखा जाता है, अत: उपर्युक्त दर्शन का लक्षण अतिव्याप्ति दोष से दूषित क्यों न होगा। इस प्रकार की शंका को हृदयंगम करते हुए धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है कि चक्षु इन्द्रिय और प्रकाश चूँकि आत्मधर्म नहीं है-पुद्गलस्वरूप हैं, जब कि दर्शन आत्मधर्म है; इसलिए उनके साथ प्रकृत लक्षण के अतिव्याप्त होने की सम्भावना नहीं है। इस पर भी शंकाकार का कहना है कि 'दृश्' धातु का अर्थ जानना-देखना है। तदनसार 'दृश्यते अनेनेति दर्शनम्' ऐसा दर्शन का लक्षण करने पर ज्ञान और दर्शन इन दोनों में कुछ भी भेद नहीं रहता है। इस शंका का समाधान करते हुए धवला में कहा गया है कि वैसा लक्षण करने पर भी ज्ञान और दर्शन में अभेद का प्रसंग नहीं प्राप्त होता। कारण यह है कि दर्शन जहाँ अन्तर्मुख चित्प्रकाश स्वरूप है, वहाँ ज्ञान बहिर्मुख चित्प्रकाश स्वरूप है। इस प्रकार जब उन दोनों का लक्षण ही भिन्न है तब वे एक कैसे हो सकते हैं-भिन्न ही रहने वाले हैं । इसके अतिरिक्त 'यह घट है और यह पट है' इस प्रकार की प्रतिकर्मव्यवस्था जिस प्रकार ज्ञान १. धवला पु० १,पृ० १३० २. एदं सव्वमवि मणेण अवहारिय 'एत्तो' इदि उत्तं भयवदा पुप्फयंतेण । पु० १, पृ० १३० (पृ० ६१-१३० भी द्रष्टव्य हैं।) ३७६ / षटखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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