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________________ ५. यहीं पर प्रसंगप्राप्त एक सूत्र (१,६-८,१४) में यह निर्देश है कि चारित्र को प्राप्त करनेवाला जीव प्रथम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि की स्थिति की अपेक्षा सात कर्मों की स्थिति को अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थापित करता है। इसकी व्याख्या में धवलाकार ने कहा है कि यह देशामर्शक सूत्र है, क्योंकि वह एक देश अर्थ के प्रतिपादन द्वारा उसके अन्तर्गत समस्त अर्थ का सूचक है।' इसलिए उन्होंने यहाँ धवला में संयमासंयम तथा क्षायोपशमिक व औपशमिक चारित्र की प्राप्ति के विधान की विस्तार से प्ररूपणा की है। ६. इसी चूलिका में आगे सम्पूर्ण चारित्र की प्राप्ति के प्रतिपादक दो सूत्रों (१,६-८, १५१६) को देशामर्शक कहकर धवलाकार ने उनसे सूचित अर्थ की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की है। ७. बन्धस्वामित्व-विचय में पांच ज्ञानावरणीय आदि प्रकृतियों के बन्धक-अबन्धकों के प्ररूपक सूत्र (३,६) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने उसे देशामर्शक कहकर उससे सूचित, क्या बन्ध पूर्व में व्युच्छिन्न होता है ? क्या उदयपूर्व में व्युच्छिन्न होता है ? क्या दोनों साथ में व्युच्छिन्न होते हैं ? आदि २३ प्रश्नों को उठाते हुए उनका स्पष्टीकरण विस्तार से किया है। ८. वेदनाखण्ड को प्रारम्भ करते हुए सूत्रकार ने उसके प्रथम अनुयोगद्वार-स्वरूप 'कृति' अनुयोगद्वार में "णमो जिणाणं" आदि ४४ सूत्रों द्वारा विस्तार से मंगल किया है। उसके सम्बन्ध में धवलाकार ने कहा है कि यह सब ही मंगलदण्डक देशामर्शक है, क्योंकि वह निमित्त आदि का सूचक है। इसलिए यहां मंगल के समान निमित्त व हेतु आदि की प्ररूपणा की जाती है । यह कहते हुए उन्होंने वहां निमित्त, हेतु और परिमाण की संक्षेप में प्ररूपणा करके५ तत्पश्चात् कर्ता के विषय में विस्तार से प्ररूपणा की है।६ ६. इसी 'कृति' अनुयोगद्वार में अग्रायणीय पूर्व के अन्तर्गत महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के २४ अनुयोगद्वारों के निर्देशक सूत्र (४,१,४५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने 'सभी ग्रन्थों का अवतार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय के भेद से चार प्रकार का है' इस सूचना के साथ वहाँ उन चारों की प्ररूपणा की है।" तत्पश्चात उन्होंने यह सूचना की है कि इस देशामर्शक सूत्र के द्वारा कर्मप्रकृति के इन चार अवतारों की प्ररूपणा की गयी है । यह कहते हुए उन्होंने आगे अग्रायणीयपूर्व के ज्ञान, श्रुत, १. धवला, पु० ६, पृ० २७० २. धवला, पु०६-संयमासंयम पृ० २७०-८०, क्षायोपशमिक चारित्र पृ० २८१-८८, औप शमिक चारित्र, पृ० २८८-३१७; इसी प्रसंग में आगे उपशमश्रेणि से प्रतिपात के क्रम का भी विवेचन किया गया है (पृ० ३१७-४२)। ३. धवला, पु० ६, पृ० ३४२-४१८ ४. धवला, पु० ८, पृ० १३-३० (यहाँ इसके पूर्व पृ० ७-१३ भी द्रष्टव्य हैं)। इसी पद्धति से यहाँ आगे सभी सूत्रों को देशामर्शक कहकर पूर्ववत् प्ररूपणा की गयी है। ५. धवला, पु० 9, पृ० १०६ ६. वही, पृ० १०७-३४ | ७. धवला, पु० ६, पृ० १३४-८३ • ७३६ / षदखण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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