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________________ इसका विशेष स्पष्टीकरण पीछे 'धवलागत विषय-परिचय' शीर्षक में सत्प्ररूपणा के प्रसंग में किया जा चुका है। २. जीवस्थान-क्षेत्रानुगम में नरकगति के आश्रय से नारकियों में मिथ्यादृष्टि आदि असंयतसम्यग्दृष्टि पर्यन्त नारकियों के क्षेत्रप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,३,५) की व्याख्या के प्रसंग में धवला में यह शंका उठायी गयी है कि सूत्र में 'लोक का असंख्यातवाँ भाग' इतना मात्र कहा गया है, उससे शेष लोकों का ग्रहण कैसे होता है । इसके उत्तर में धवलाकार ने कहा है कि क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम इन वो अनुयोगद्वारों के सूत्र देशामर्शक हैं। इसलिए उनसे सूचित शेष लोकों का ग्रहण हो जाता है।' तदनुसार धवलाकार ने क्षेत्रानुगम और स्पर्शनानुगम इन दो अनुयोगद्वारों के सूत्रों की व्याख्या में सामान्यलोक, ऊर्ध्वलोक, अधोलोक, तिर्यग्लोक और अढाई द्वीप-को आधार बनाकर दो प्रकार के स्वस्थान, सात प्रकार के समुद्घात और एक उपपाद-इन दस पदों के आश्रय से चौदह जीवसमासों के क्षेत्र और स्पर्शन की प्ररूपणा की है। ३. जीवस्थान-चूलिका में सूत्रकार ने छठी और सातवीं चूलिकाओं में कम से कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति की प्ररूपणा करके आगे आठवीं समयक्त्वोत्पत्ति चूलिका को प्रारम्भ करते हुए यह कहा है कि जीव इतने काल की स्थिति से युक्त कर्मों के रहते सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है । -- सूत्र १,६-८,१ इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र देशामर्शक है । इससे उक्त कर्मों के जघन्य स्थितिबन्ध, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध, जघन्य व उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व, जघन्य व उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व तथा जघन्य व उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व के होने पर सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं करता है; यह सूत्र का अभिप्राय ग्रहण करना चाहिए । सूत्र के अन्तर्गत इस अभिप्राय को सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में भी अभिव्यक्त किया गया है । ४. इसी चूलिका में आगे सूत्र में यह कहा गया है कि जीव जब सब कर्मों की स्थिति को संख्यात सागरोपमों से हीन अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थापित करता है, तब वह प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । —सूत्र १,६-८,५ इनकी व्याख्या करते हुए धवला में स्थितिबन्धापसरण के साथ स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के घात का भी विचार किया गया है। इस पर वहाँ यह कहा गया है कि सूत्र में तो केवल स्थितिबन्धापसरण की प्ररूपणा की गयी है, स्थितिघातादि की प्ररूपणा वहाँ नहीं की गयी है। इसलिए यहाँ उनकी प्ररूपणा करना योग्य नहीं है। इसका समाधान करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सूत्र तालप्रलम्बसूत्र के समान देशामर्शक है, इसलिए यहाँ उनकी प्ररूपणा करना सगत व प्रसंग के अनुरूप ही है । १. धवला, पु० ४, पृ० ५६-५७ २. इन दस पदों का स्वरूप धवला, पु० ४, पृ० २६-३० में द्रष्टव्य है। ३. धवला, पु० ६, पृ० २०३ ४. स०सि० २-३ व त०वा० २,३,२ ५. धवला, पु० ६, पृ० २३० वीरसेनाचार्य की व्याख्यान-पद्धति । ७३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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