________________
इस प्रकार यहाँ धवलाकार ने वातवलयों के बाह्य भाग में तिर्यग्लोक की समाप्ति की पुष्टि में व्याख्याप्रज्ञप्ति के उपर्युक्त प्रसंग को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। ___ आगे वेदनाद्रव्यविधान में आयुकर्म की उत्कृष्ट द्रव्यवेदना के स्वामी की प्ररूपणा के प्रसंग में सूत्र ३६ की व्याख्या करते हुए धवला में कहा गया है कि परभव-सम्बन्धी आयु के बंध जाने पर पीछे भुज्यमान आयु का कदलीघात नहीं होता है । इस पर वहाँ यह शंका उठी है कि परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का घात होने में क्या दोष है। इसके समाधान में वहां यह कहा गया है कि जिस जीव की भुज्यमान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है और परभविक आयु उदय में नहीं प्राप्त हुई है, उसके चारों गतियों के बहिर्भूत हो जाने के कारण अभाव का प्रसंग प्राप्त होता है । इस कारण परभविक आयु के बंध जाने पर भुज्यमान आयु का घात सम्भव नहीं है। ___ इस पर शंकाकार ने परभविक आयु के बन्ध से सम्बन्ध रखने वाले व्याख्याप्रज्ञप्ति के एक सन्दर्भ को प्रस्तुत करते हुए कहा है कि आपके उपर्युक्त कथन का इस व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र के साथ विरोध कैसे न होगा। इसके समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र इससे भिन्न व आचार्यभेद से भेद को प्राप्त है, इस प्रकार दोनों एक नहीं हो सकते।'
इस प्रकार से धवलाकार ने द्रव्यप्रमाणानुगम में जहाँ एक प्रसंग पर उस व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र को प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है, वहीं दूसरे प्रसंग पर उन्होंने प्रकृत विधान के प्रतिकूल होने से आचार्यभेद से भिन्न बतलाकर उसकी उपेक्षा कर दी है । देशामर्शक सूत्र आदि
यह पूर्व में भी स्पष्ट किया जा चुका है कि धवलाकार आचार्य वीरसेन ने प्रस्तुत षट्खण्डागम के अनेक सूत्रों की व्याख्या करते हुए उन सूत्रों को तथा किसी-किसी प्रकरणविशेष को भी देशामर्शक कहकर उनसे सूचित अर्थ का व्याख्यान कहीं संक्षेप में और कहीं अपने अगाध श्रतज्ञान के बल पर बहुत विस्तार से भी किया है। इसे स्पष्ट करने के लिए यहां कुछ थोड़े से उदाहरण दिए जाते हैं
१. षट् खण्डागम के प्रारम्भ में आचार्य पुष्पदन्त ने पंचनमस्कारात्मक मंगल को निबद्ध किया है । उसकी उत्थानिका में धवलाकार "मंगल-णिमित्त-हेऊ" इत्यादि एक प्राचीन गाथा को उद्धत कर उसके आधार से कहते हैं कि विवक्षित शास्त्र के व्याख्यान के पूर्व मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता इन छह का व्याख्यान किया जाता है; यह आगम के व्याख्यान की पद्धति है । इस आचार्यपरम्परागत न्याय को अवधारित कर पुष्पदन्ताचार्य 'पूर्वाचार्यों का अनुसरण रत्नत्रय का हेतु होता है ऐसा मानकर कारण-सहित उन मंगल-आदि छह की प्ररूपणा करने के लिए सूत्र कहते हैं ।
___ यहाँ यह पंचनमस्कारात्मक सूत्र उन मंगलादि छह का प्ररूपक कैसे है, इस प्रसंगप्राप्त शंका के समाधान में धवलाकार ने कहा है कि वह तालप्रलम्बसूत्र के समान वेशामर्शक है। इतना स्पष्ट करके आगे उन्होंने उन मंगलादि छह की प्ररूपणा की है।'
१. धवला, पु० १०, पृ० २३७-३८ २. धवला, पु० १, पृ. ८-७२
७३४ / षट्खण्डागम-परिशीलन
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org -