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________________ इसे समस्त संयतराशि में से घटाकर शेष में तीन का भाग देने पर अप्रमत्तसंयतराशि होती है(३) अप्रमत्तसंयत ८६६६६६६७-६०२६८८=८६०६७३०६; ८६०९७३०६:३-२६६६६१०३ इसे दुगुणित करने से प्रमत्तसंयतराशि होती है(४) प्रमत्तसंयत २६६६६१०३४२=५६३६८२०६ धवला में एक गाथा को उद्धृत करके उसके द्वारा उपर्युक्त प्रमाण की पुष्टि भी की गई है। प्रमाणों के इस उल्लेख को धवलाकार ने दक्षिण-प्रतिपत्ति कहा है। यहाँ कितने ही आचार्य ऊपर धवला में उद्धृत संयतों आदि के प्रमाण की प्रतिपादक उस गाथा' को युक्ति के बल से असंगत ठहराते हैं। वे यह युक्ति देते हैं कि सब तीर्थंकरों में बड़ा शिष्य परिवार (३३००००) पद्मप्रभ भट्टारक का रहा है । यदि उसे एक सौ सत्तर (पांच भरत क्षेत्रगत ५. पांच ऐरावतक्षेत्रगत ५, पांच विदेहक्षेत्रगत ३२४५ = १६०) से गुणित करने पर उन संयतों का प्रमाण पांच करोड़ इकसठ लाख (३३००००४१७० : ५६१०००००) ही आता है । यह संयतसंख्या उस गाथा में उल्लिखित संयतसंख्या को प्राप्त नहीं होती, इसलिए वह गाथा संगत नहीं है। __इस दोषारोपण का निराकरण करते हुए धवलाकार ने कहा है कि सभी अवसर्पिणियों में हुण्डावसर्पिणी अधम (निकृष्ट) है। उसमें उत्पन्न तीर्थंकरों का शिष्य-परिवार युग के प्रभाव से दीर्घ संख्या से हटकर हीनता को प्राप्त हुआ है । इसलिए उस हीन संख्या को लेकर उक्त गाथासूत्र को दूषित नहीं ठहराया जा सकता है। कारण यह कि शेष अवसपिणियों में उत्पन्न तीथंकरों का शिष्य-परिवार बहुत पाया जाता है । इसके अतिरिक्त भरत और ऐरावत क्षेत्रों में मनुष्यों की संख्या बहुत नहीं है, इन क्षेत्रों की अपेक्षा विदेह क्षेत्रगत मनुष्यों की संख्या संख्यात गणी है। इसलिए इन दो क्षेत्रों के एक तीर्थकर का शिष्य-परिवार विदेहक्षेत्र के एक तीर्थकर के शिष्य-परिवार के समान नहीं हो सकता। इस प्रसंग में आगे धवला में मनुष्यों के अल्पबहुत्व को भी इस प्रकार प्रकट किया गया है. अन्तरद्वीपज मनुष्य सबसे स्तोक हैं। उत्तरकुरु तथा देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हरि व रम्यक क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। हैमवत व हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। भरत व ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। विदेह क्षेत्रगत मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं। बहुत मनुष्यों में चूंकि संयत बहुत होते हैं, इसीलिए यहाँ के संयतों के प्रमाण को प्रधान करके जो ऊपर दोष दिया गया है, वह वस्तुतः दूषण नहीं है; क्योंकि वह बुद्धिविहीन आचार्यों के मुख से निकला है। ___ इस प्रकार धवला में प्रथमत: दक्षिणप्रतिपत्ति-आचार्य परम्परागत उपदेश-के अनुसार प्रमत्त संयतादिकों के प्रमाण को दिखाकर तत्पश्चात् उत्तर-प्रतिपत्ति-आचार्य परम्परा १. धवला पु० ३, पृ० ६५-६८ २. धवला पु० ३, पृ०६८ ३. वही, पृ०६८-६६ ३९८ / षट्ाण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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