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________________ क० प्र० में भी कहा गया है कि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला अनिवृत्तिकरणकाल में संख्यातवें भाग के शेष रह जाने पर अन्तरकरण करता है।' इस अन्तरकरण का स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की टीका में प्रायः समान रूप में ही किया गया है। (६) १० ख० में आगे यह भी कहा गया है कि इस प्रकार अन्तरकरण करके वह मिथ्यात्व के तीन भाग करता है--सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व । क०प्र० में भी कहा गया है कि मिथ्यात्व के उदय के क्षीण हो जाने पर वह आत्महितकर उस औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, जिसे पूर्व में कभी नहीं प्राप्त किया था। तब वह द्वितीय स्थिति को अनुभाग की अपेक्षा तीन प्रकार करता है-देशघाति सम्यक्त्व, सर्वघाति संमिश्र (सम्यग्मिथ्यात्व) और मिथ्यात्व । इसका स्पष्टीकरण दोनों ग्रन्थों की टीका में विशेषरूप से किया गया है। इतना विशेष रहा है कि धवला में जहाँ उस मिथ्यात्व के तीन भाग करने की सूचना सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के प्रथम समय में ही की गई है वहाँ क० प्र० की टोका में उसकी सूचना सम्यक्त्वप्राप्ति के पूर्व अनन्तर समयमें, अर्थात् प्रथमस्थिति के अन्तिम समय में की गई है। (७) क० प्र० में आगे कहा गया है कि सम्यक्त्व का यह प्रथम लाभ मिथ्यात्व के सर्वोपशम से होता है। इस सम्यक्त्व के प्राप्त हो जाने पर उसके काल में अधिक से अधिक छह आवलियों के शेष रह जाने पर कोई जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है। १० ख० मूल में यद्यपि इसकी सूचना नहीं की गई है, पर धवलाकार ने उस प्रसंग में 'एत्थ उवउज्जंतीओ गाहाओ' ऐसी सूचना करते हुए कुछ गाथाओं को उद्धृत कर प्रसंगप्राप्त विषय की प्ररूपणा की है। ये सब ही गाथाएँ कषायप्राभूत में उसी क्रम से उपलब्ध होती हैं। उनमें एक गाथा का पूर्वार्ध कर्मप्रकृतिगत गाथा के समान हैं । यथा"सम्मत्तपढमलंभो सव्वोवसमेण तह य वियट्ठण।" ~~-धवला पु० ६, पृ० २४१ "सम्मत्तपढमलंभो सम्वोवसमा तहा विगिट्ठो य ।" __-क० प्र० (उप० क० २३ पू०) कर्म प्रकृतिगत आगे की अन्य तीन (२४-२६) गाथाएँ भी उन गाथाओं के अन्तर्गत हैं । १. क० प्र० (उपशा क०) १६-१७, पृ० २५९/२ २. धवला पु० ६, पृ० २३०-३४ तथा क० प्र० मलय० वृत्ति १६-१७, पृ० २६० ३. सूत्र १,६-८,७ ४. क० प्र० (उपशा० क०) १८-१६ ५. धवला पु० ६, पृ० २३४-३५ तथा क० प्र० मलय० वृत्ति १६, पृ० २६१/२ ६. क० प्र० (उप० क०) २३ ७. धवला पु० ६, पृ० २३८-४३, गा० २-१६ ८. कसायपाहुडसुत्त गा० ४२-५६ (गा० ४६-५० में क्रमव्यत्यय हुआ है । पृ० ६३१-३८ ६. क० प्र० (उप० क०) २४-२६ (धवला पु० ६, २४२-४३ तथा कसायपाहुडसुत्त गा० ५४-५६, पृ० ६३७-३८ १०८ / षट्लण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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