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________________ धवला में उद्धृत उन गाथाओं में एक अन्य गाथा इस प्रकार है उवसामगो य सव्वो णिव्वाघादो तहा णिरासाणो । उवसंते भजियव्वो णिरासाणो चेव खीणम्हि ॥ - पु० ६, पृ० २३६ इस गाथा के द्वारा क० प्र० (२३) के समान यही अभिप्राय प्रकट किया गया है कि मिथ्यात्व का उपशम हो जाने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाला जीव कदाचित् सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है । किन्तु उक्त मिथ्यात्व का क्षय हो जाने पर जीव उस सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । आचार्य यतिवृषभ विरचित कषायप्राभृत-चूर्णि में उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है— इस उपशमकाल के भीतर जीव असंयम को भी प्राप्त हो सकता है, संयमासंयम को भी प्राप्त हो सकता है, और दोनों को भी प्राप्त हो सकता है । उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहने पर वह कदाचित् सासादन गुणस्थान को भी प्राप्त हो सकता है । किन्तु यदि उस सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर वह मरता है तो नरकगति, तियंचगति अथवा मनुष्यगति को प्राप्त नहीं होता । उस अवस्था में वह नियम से देवगति को ही प्राप्त होता है । ' क० प्र० की पूर्व निर्दिष्ट गाथा ( २३ ) की व्याख्या में बृहच्चूर्णि इस प्रसंग को उद्धृत करते हुए यह अभिप्राय प्रकट स्थित कोई उपशमसम्यग्दृष्टि देशविरति को भी प्राप्त होता है प्राप्त होता है । पर मूल गाथा में इतनी मात्र सूचना की गई छह आवलियों के शेष रह जाने पर कोई जीव सासादन गुणस्थान को प्राप्त हो सकता है । " ०ख० की धवला टीका में सासादन सम्यग्दृष्टियों के पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र जघन्य अन्तर को घटित करते हुए कहा गया है कि कोई जीवप्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करके उसके साथ अन्तर्मुहूर्त रहा व सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ । इस प्रकार अन्तर करके सबसे जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भागमात्र उद्वेलन काल से सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्व के स्थिति सत्य को प्रथम सम्यक्त्व के योग्य सागरोपम पृथक्त्व मात्र स्थापित करके तीनों करणों को करता हुआ फिर से प्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ । तत्पश्चात् उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रह जाने पर सासादन को प्राप्त हो गया । इस प्रकार उसके सासादन का जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग प्राप्त होता है । मलयगिरि सूरि ने शतककिया है कि अन्तरकरण में और कोई सर्वविरति को भी कि उपशमसम्यक्त्वकाल में इस पर यह शंका की गई है कि उपशम श्रेणि से उतरकर व सासादन को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त में फिर से उपशम श्रेणिपर आरूढ़ हुआ । पश्चात् उससे उतरता हुआ फिर से सासादन को प्राप्त हो गया, इस प्रकार सासादन का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त होता है । उसकी यहाँ प्ररूपणा क्यों नहीं की । कषायप्राभृत में कहा भी गया है कि उपशमश्रेणि से उतरता हुआ उपशमसम्यग्दृष्टि सासादन को भी प्राप्त हो सकता है। इसके समाधान में वहाँ यह कहा १. क० सुत्त चूर्णि ५४२-४६, पृ० ७२६-२७ ( पाठ कुछ अशुद्ध हुआ दिखता है, संयमासंयम के स्थान में 'संयम' पाठ सम्भव है ) । २. क० प्र० ( उप० क० ) मलय० वृत्ति, गा० २३, पृ० २६२१२ (सम्भव है यह उपर्युक्त क० प्रा० चूर्णि के ही आधार से स्पष्टीकरण किया गया है ।) षट्खण्डागम की अन्य ग्रन्थों से तुलना / १८६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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