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________________ गया है कि उपशमश्रेणि से उतरनेवाला एक ही उपशमसम्यग्दृष्टि दो बार सासादनगुणस्थान को प्राप्त नहीं होता ।' इस विषय में दो भिन्न मत रहे हैं। जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है, "कषायप्राभृत- चूर्णि के कर्ता यतिवृषभाचार्य उपशमसम्यक्त्व के काल में छह आवलियों के शेष रहने पर जीव कदाचित् सासादन को प्राप्त हो सकता है, ऐसा मानते हैं । पर षट्खण्डागम के कर्ता स्वयं भूतबलि भट्टारक के उपदेशानुसार उपशमश्रेणि से उतरता हुआ जीव सासादन गुणस्थान को नहीं प्राप्त होता है । 3 ८. ष०ख० में जीवस्थान की उसी सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका में आगे दर्शनमोह की क्षपणा के प्रसंग में कहा गया है कि उसकी क्षपणा में उद्यत जीव अढ़ाई द्वीप समुद्रों में अवस्थित पन्द्रह कर्मभूमियों में, जहाँ जिन केवली तीर्थंकर हों, उसकी क्षपणा को प्रारम्भ करता है । पर निष्ठापक उसका चारों ही गतियों में हो सकता है । क०प्र० में भी यही कहा गया है कि दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक आठ वर्ष से अधिक आयुवाला जिनकालवर्ती - केवली जिन के समय में रहने वाला - मनुष्य होता है । अन्तिम काण्डक के उत्कीर्ण होने पर क्षपक कृतकरणकालवर्ती होता है- -उस समय उसे कृतकरण कहा जाता है । इसे स्पष्ट करते हुए मलयगिरि सूरि ने कहा है कि ऋषभ जिन के विचरणकाल से लेकर जम्बूस्वामी के केवलज्ञान उत्पन्न होने के अन्त तक जिनकाल माना गया है । इस जिनकाल में रहने वाला आठ वर्ष से अधिक आयु से युक्त मनुष्य दर्शनमोह की क्षपणा को प्रारम्भ करता है । कृतकरणकाल में यदि कोई मरण को प्राप्त होता है तो वह चारों गतियों में से कहीं भी उसे समाप्त करता है । इस प्रसंग में उन्होंने 'उक्तं च' कहकर इस आगमवाक्य को उद्धृत किया है - " पट्टवगो य मणुस्सो णिट्ठवगो चउसु वि गई । "६ लगभग इससे मिलती हुई गाथा कषायप्राभृत में इस प्रकार उपलब्ध होती हैदंसणमोहक्खवणाugaगो कम्मभूमिजादो दु । ७ णियमा मणुसगदीए णिट्टवगो चावि सव्वत्थ ।। " ६. ष० ख० में वेदना खण्ड के अन्तर्गत दूसरे 'वेदना' अनुयोगद्वार के १६ अवान्तर अनुयोगद्वारों में से चौथे वेदनाद्रव्यविधान अनुयोगद्वार के द्रव्य की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की उत्कृष्ट वेदना किसके होती है, इसे स्पष्ट किया गया है। वह चूंकि गुणितकर्माशिक के होती है, इसलिए उस गुणितकर्माशिक के विशेष लक्षणों को वहाँ प्रकट किया गया है। 5 १. धवला पु० ७, २३३-३४ २. क० प्रा० चूर्णिसूत्र वे ही हैं जिनका उल्लेख अभी पीछे किया जा चुका है । ३. धवला पुं० ६, पृ० ३३१ ( पृ० ४४४ भी द्रष्टव्य है) ४. ष० ख० सूत्र १, ६-८, ११ व १२ (पु०६, पृ० २४३ व २४६) ५. क० प्र० (उप० क० ) गा० ३२, पृ० २६७ /१ ६. क० प्र० (उप० क० ) मलय ० वृत्ति, पृ० २६८ / २ ७. क० पा०, सुत्त० पृ० ६३६, गा० ११० (५७) ८. ष०ख० सूत्र ४, २, ४, ६-३२ (५० १०, पृ० ३१-१०६ ) १६० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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