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________________ इस प्रसंग में धवलाकार ने यह सूचना की है कि सूत्रकार ने चूंकि उन शेष बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा नहीं की है, इसलिए हम पूर्वोक्त दो (वर्गणाप्ररूपणा व वर्गणानिरूपणा) अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा करते हैं । यह कहकर आगे उन्होंने यथाक्रम से उन बारह अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा की है।' देशामर्शक सूत्र आदि से सम्बन्धित ये कुछ ही उदाहरण दिये गये हैं। वैसे धवलाकार ने अन्य भी कितने ही प्रसंगों पर प्रचुरता से उन देशामर्शक सूत्र आदि का उल्लेख किया है और उनसे सूचित प्रसंगप्राप्त अर्थ का, जिसकी प्ररूपणा मूलग्रन्थकार द्वारा नहीं की गयी है, व्याख्यान धवला में कहीं संक्षेप में व कहीं अपने प्राप्त श्रुत के बल पर बहुत विस्तार से किया है। यह ऊपर के विवेचन से स्पष्ट हो चुका है। यह सब देखते हुए धवलाकार आ० वीरसेन की अगाध विद्वत्ता का पता लगता है। उपदेश के अभाव में प्रसंगप्राप्त विषय की अप्ररूपणा यह पीछे कहा ही जा चुका है कि धवलाकार ने प्रसंगप्राप्त विषय का विशदीकरण आचार्यपरम्परागत उपदेश के अनुसार अतिशय प्रामाणिकतापूर्वक किया है। जहाँ उन्हें परम्परागत उपदेश नहीं प्राप्त हुआ है, वहां उन्होंने उसे स्पष्ट कर दिया है व विवक्षित विषय की प्ररूपणा नहीं की है । यथा-- १. जीवस्थान-द्रव्यप्रमाणानुगम में तिर्यंचगति के आश्रय से सासादनसम्यग्दष्टि आदि संयतासंयत पर्यन्त जीवों में द्रव्यप्रमाण के प्ररूपक सूत्र (१,२,३६) की ब्याख्या के प्रसंग में धवलाकार ने यह स्पष्ट किया है पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त तीन वेद वाले सम्यग्मिथ्यादष्टि जीवों की राशि से पंचेन्द्रिय तियंचयोनिमती असंयतसम्यग्दृष्टियों की राशि क्या समान है, क्या संख्यातगुणी है, क्या असंख्यातगणी है, क्या संख्यागगुणी हीन है, क्या असंख्यातगुणी हीन है, क्या विशेष अधिक अथवा विशेषहीन है; इसका वर्तमान काल में उपदेश नहीं है। २. क्षद्रक बन्ध के अन्तर्गत स्पर्शनानुगम में "चोद्दसभागा वा दसणा" इस सूत्र (२,७,५) की व्याख्या करते हुए धवलाकार ने कहा है कि यह सूत्र मारणान्तिक और उपपाद पदगत नारकियों के अतीत काल का आश्रय लेकर कहा गया है। मारणान्तिक के ये छह-बटे चौदह (६/१४) आग देशोन-संख्यात हजार योजनों से हीन हैं। प्रकारान्तर से यहाँ यह भी कहा गया है कि अथवा यहाँ ऊनता (हीनता) का प्रमाण इतना है, यह ज्ञात नहीं है। क्योंकि पार्श्वभागों में व मध्य में इतना क्षेत्र हीन है, इस सम्बन्ध में विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं है। ३. वेदनाद्रव्यविधान में ज्ञानावरणीय की अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना की प्ररूपणा के प्रसंग में अवसरप्राप्त 'श्रेणि' अनुयोगद्वार की प्ररूपणा करते हुए धवलाकार ने कहा है कि अनन्तरोपनिधा और परम्पोपनिधा के भेद से श्रेणि दो प्रकार की है। उनमें अनन्तरोपनिधा का जानना १. वही, १४, पृ० १३४-२२३ २. धवला, पु० ३, पृ० २३८-३६ ३. धवला, पु० ७, पृ० ३६६ ७४० / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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