________________
षट्खण्डागम पर टीकाएं
आचार्य इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम पर निर्मित कुछ टीकाओं का उल्लेख इस प्रकार किया है१. पद्मनन्दी विरचित परिकर्म
इन्द्रनन्दी विरचित श्रुतावतार में कहा गया है कि इस प्रकार गुरुपरिपाटी से आते हुए द्रव्यभावपूस्तकगत दोनों प्रकार के सिद्धान्त (षट्खण्डागम व कषायप्राभूत) का ज्ञान कुण्डकुन्दपुर में पद्मनन्दी को प्राप्त हुआ। उन्होंने षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह हजार प्रमाण ग्रन्थ 'परिकर्म' को रचा। इस प्रकार वे 'परिकर्म' के कर्ता हुए।
यहाँ आचार्य इन्द्रनन्दी का 'पद्मनन्दी' से अभिप्राय सम्भवतः उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्य का रहा है, जिन्होंने समयप्राभृत आदि अनेक अध्यात्म-ग्रन्थों की रचना की है। कारण यह कि कुन्दकुन्दाचार्य का दूसरा नाम पद्मनन्दी भी रहा है । यह पद्मनन्दी के साथ कुन्दकुन्दपुर के उल्लेख से भी स्पष्ट प्रतीत होता है, क्योंकि कुन्दकुन्दपुर से सम्बन्ध उन्हीं का रहा है।
यह 'परिकर्म' वर्तमान में उपलब्ध नहीं है, पर वीरसेनाचार्य ने अपनी धवला टीका में उसका उल्लेख बीसों बार किया है। उन उल्लेखों में प्रायः सभी सन्दर्भ गणित से सम्बन्ध रखते हैं। जैसे
धवला में उसका उल्लेख एक स्थान पर विवक्षित विषय की पुष्टि के लिए किया गया है। जैसे-द्रव्यप्रमणानुगम में थ्यिादृष्टियों के द्रव्यप्रमाण के प्रसंग में अनन्तानन्त के ये तीन भेद निदिष्ट किये गये हैं-जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अनन्तानन्त । इनमें जघन्य और उत्कृष्ट अनन्तानन्त को छोड़कर प्रकृत में अजघन्य-अनुत्कृष्ट अनन्तानन्त विवक्षित है । उसकी पुष्टि में 'परिकर्म' का उल्लेख धवला में इस प्रकार किया गया है
__ "जम्हि जम्हि अणंताणतयं मग्गिज्जदि तम्मि तम्हि अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणं तस्सेव, इदि परियम्मवयणादो जाणिज्जदि अजहण्णमणुक्कस्स अणंताणं तस्सेव गहणं होदि त्ति।"
-पु. ३, पृ० १६ २. एक अन्य स्थल पर उसका उल्लेख असंगत मान्यता के साथ विरोध प्रकट करने के लिए किया गया है। जैसे
१. एवं द्विविधो द्रव्य-भावपुस्तकगतः समागच्छन् ।
गुरुपरिपाट्या ज्ञात: सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥१६०॥ श्रीपद्मनन्दिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः [ण-] । ग्रन्थपरिकर्मका [र्ता] षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ॥१६१।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org