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________________ ८. दस चदुरिगि सत्तारस ६. पणवण्णा इर वण्णा १०. बंधे अधापवत्तो उपसंहार ३३६ / षट्खण्डागम-परिशीलन ८ Jain Education International 5 55 w १६ गोम्मटसार के रचियता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती निःसन्देह अपार सिद्धान्तसमुद्र के पारगामी रहे हैं। उन्होंने अपने समय में उपलब्ध समस्त आगमसाहित्य को —— जैसे षट्खण्डागम और उसकी टीका धवला, कषायप्राभृत व उस पर निर्मित चूर्णिसूत्र एवं जयधवला टीका, पंचस्तिकाय, मूलाचार और तत्त्वार्थ सूत्र व उसकी व्याख्यारूप सर्वार्थसिद्धि एवं तत्त्वार्थवार्तिक आदि का गम्भीर अध्ययन किया था; जिसका उपयोग प्रकृत ग्रन्थ की रचना में किया गया है। उनकी इस कृति में षट्खण्डागम व कषायप्राभृत में प्ररूपित प्रायः सभी विषय समाविष्ट हैं । यही नहीं, उन्होंने उक्त षट्खण्डागम की टीका धवला और कषायप्राभृत की टीका जयधवला के अन्तर्गत प्राप्त गाथाओं को उसी रूप में या प्रसंगानुरूप यत्किंचित् परिवर्तन के साथ इस ग्रन्थ में सम्मिलित कर लिया है। साथ ही, उन्होंने अपने बुद्धिबल से विवक्षित विषय को प्रसंग के अनुरूप विकसित व वृद्धिंगत भी किया है। इस प्रकार यह सर्वांगपूर्ण आ० नेमिचन्द्र की कृति विद्वज्जगत् में सर्वमान्य सिद्ध हुई है । पर आश्चर्य इस बात का है कि जिस षट्खण्ड को सिद्ध करके उन्होंने अगाध सिद्धान्त विषयक पाण्डित्य को प्राप्त किया उस षट्खण्डागम के मूलाधार आचार्य धरसेन, पुष्पदन्त व भूतबलि तथा गुणधर और यतिवृषभ आदि का कहीं किसी प्रकार से स्मरण नहीं किया । यह आश्चर्य विशेष रूप में इसलिए होता है, जबकि उन्होंने अपनी इस कृति में गौतम स्थविर (जीवकाण्ड गाथा ७०५), इन्द्रनन्दी, कनकनन्दी ( क० का० ३६६ ), वीरनन्दी, अभयनन्दी (क० का ० ४३६) और पुनः अभयनन्दी, इन्द्रनन्दी, वीरनन्दी (क० का ० ७८५ व ८९६) आदि का स्मरण अनेक बार किया है। इतना ही नहीं, उन्होंने अजितसेन के शिष्य गोम्मटराय चामुण्डराय श्रावक को महत्त्व देते हुए उसका जयकार भी किया है (जीवकाण्ड ७३३ व क ० का० ९६६-६८ ) । ११ २४ ४०६ For Private & Personal Use Only २६३ ७८६ ४१६ www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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