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________________ जीवभावबन्ध के औपशमिक और क्षायिक ये दो भेद निर्दिष्ट भी कर दिये गये हैं। इनमें विपाकप्रत्ययिक जीवभावबन्ध के यहाँ संख्यानिर्देश के बिना चौबीस; औपशमिक भाव के उपशान्त क्रोध-मानादि के साथ औपशमिक सम्यक्त्व व औपशमिक चारित्र इत्यादि; क्षायिकभाव के क्षीण क्रोध-मानादि के साथ क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, क्षायिक दानादि पांच लब्धियां तथा केवलज्ञान व केवलदर्शन आदि इसी प्रकार के अन्य कितने ही भाव; तथा तदुभय (क्षायोपशमिक) भाव के क्षायोपशमिक एकेन्द्रियत्व आदि के साथ मति-अज्ञान आदि तीन मिथ्याज्ञान, मनिबोधिक आदि चार सम्यग्ज्ञान, चक्षुदर्शनादि तीन दर्शन इत्यादि अनेक भेद प्रकट किये गये हैं । -सूत्र ५,६,१४-१६ (पु० १४) ____ इस सबको दृष्टि में लेते हुए तत्त्वार्थसूत्र में जीव के 'स्वतत्त्व' के रूप में इन पांच भावों का निर्देश किया गया है- औपशमिक, क्षायिक, मिश्र (तदुभय या क्षायोपशमिक), औदयिक और पारिणामिक। इनमें से वहाँ औपशमिक के दो, क्षायिक के नौ, मिश्र के अठारह, औदयिक के इक्कीस और पारिणामिक के तीन भेदों का निर्देश करते हुए उनको पृथक्-पृथक् स्पष्ट भी कर दिया गया है। -सूत्र २,१-७ उदाहरणस्वरूप यहाँ औदयिक भाव के भेदों के प्ररूपक सूत्रों को दोनों ग्रन्थों से उद्धत किया जाता है___“जो सो विवागपच्चइयो जीवभावबन्धो णाम तस्स इमो णिद्दे सो-देवे त्ति वा मणुस्से त्ति तिरिक्खेत्ति वा रइए त्ति वा इत्थिवेदे त्ति वा पुरिसवेदे त्ति वा णउसयवेदे त्ति वा कोहवेदे त्ति वा माणवेदे त्ति वा मायवेदेत्ति वा लोहवेदे त्ति वा रागवेदे त्ति वा दोसवेदे त्ति वा मोहवेदे त्ति बा किण्हलेस्से त्ति वा णीललेस्से ति वा काउलेस्से त्ति वा तेउलेस्से त्ति वा पम्मलेस्से त्ति वा सुक्कलेस्से त्ति वा असंजदे त्ति वा अविरदे त्ति वा अण्णाणे त्ति वा मिच्छादिट्टि त्ति वा जे चामण्णे एवमादिया कम्मोदयपच्चइया उदयविवागणिप्पण्णा भावा सो सव्वो विवागपच्चइयो जीवभावबन्धो णाम।"-सूत्र १५ अब इस सम्पूर्ण अभिप्राय को अन्तहित करने वाला तत्त्वार्थसूत्र का यह सूत्र देखिए"गति-कषाय-लिंग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्त्येकैकैकैक-षड्भेदाः।" -सूत्र २-८ इस प्रकार ष०ख० में जहाँ उपर्युक्त उतने विस्तृत सूत्र में औदयिक भाव के उन भेदों को प्रकट किया गया है वहाँ उसी के आधार से तसू० में उन सब भावों को बहुत संक्षेप में ग्रहण कर लिया गया है। यह पूर्व में कहा जा चुका है कि ष०ख० में जो तत्त्व का विचार किया गया है वह प्राचीन आगमपद्धति के अनुसार किया गया है, इसीलिए उसमें विस्तार व पुनरुक्ति अधिक हुई है। यह ऊपर के उदाहरण से भी स्पष्ट है____ त०सू० के उपर्युक्त सूत्र में प्रथमतः गति, कषाय, लिंग (वेद), मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व और लेश्या इन भावों का निर्देश एक ही समस्यन्त पद में करके आगे यथाक्रम से उनकी संख्या का निर्देश चार, चार, तीन, एक, एक, एक, एक और छह के रूप में कर दिया गया है । इस प्रकार सूत्र में जो लाघव रहना चाहिए वह रह गया है और अभिप्राय कुछ छूटा नहीं है। पर ष०ख० के सूत्र में गति-कषाय आदि के उन अवान्तर भेदों का उल्लेख पृथक्-पृथक् ग्रन्थकारोल्लेख / ६५९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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