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________________ का निर्देश करते हुए उतमक्षमादिरूप दस प्रकार के धर्म को विशद किया है तथा अन्त में यह स्पष्ट कर दिया है कि जो सागारधर्म को छोड़कर मुनिधर्म में प्रवृत्त होता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है, इस प्रकार सदा चिन्तन करना चाहिए।' मलाचार में इस धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में क्षमा आदि दस धर्मों का निर्देश मात्र किया गया है। सागारधर्म का वहीं कुछ भी उल्लेख नहीं है।' एक विशेषता यहाँ यह भी रही है कि आ० कुन्दकुन्द ने अपनी पद्धति के अनुसार यहाँ भी निश्चय नय को प्रधानता दी है। जैसे-- (१) संसारानुप्रेक्षा का उपसंहार करते हुए वे गा० ३७ में कहते हैं कि कर्म के निमित्त से जीव संसार-परिभ्रमण करता है । निश्चय नय से कर्म से निर्मुक्त जीव के संसार नहीं है। (२) आस्रवानुप्रेक्षा के प्रसंग में उन्होंने गा० ६० में कहा है कि निश्चयनय से जीव के पूर्वोक्त आस्रवभेद नहीं है। (३) जैसा कि पूर्व में भी कहा जा चुका है, धर्मानुप्रेक्षा के प्रसंग में आ० कुन्दकुन्द ने कहा है कि निश्चय से जीव सागार-अनगार धर्म से भिन्न है, इसलिए मध्यस्थ भावना से सदा शुद्ध आत्मा का चिन्तन करना चाहिए (गा० ८२)। (४) प्रसंग का उपसंहार करते हुए उन्होंने अन्त में भी यह स्पष्ट कर दिया है-इस प्रकार से कन्दकन्द मुनीन्द्र ने निश्चय और व्यवहार के आश्रय से जो कहा है, उसका जो शुद्ध मन से चिन्तन करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है (६१) केप गाथा ४२ में कुन्दकुन्द ने यह भी कहा है कि जीव अशुभ उपयोग से नारक व तियंच अवस्था को, शुभ उपयोग से देवों व मनुष्यों के सुख को और शुद्ध उपयोग से सिदि को प्राप्त करता है। आगे (गा० ६३-६५ में) उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि शुभ उपयोग की प्रवत्ति अशभ योग का संवरण करती है, पर शुभ योग का निरोध शुद्ध उपयोग से सम्भव है। धर्म और शक्ल ध्यान शुद्ध उपयोग से होते हैं। वस्तुतः जीव के संवर नहीं है। इस प्रकार सदा संवरभाव से रहित आत्मा का चिन्तन करना चाहिए। यह पद्धति मूलाचार में कहीं दृष्टिगोचर नहीं होती। इस प्रकार दोनों नयों के आश्रय से वस्तु-तत्त्व का विचार करते हुए आ० कुन्दकन्द ने प्रधानता निश्चयनय को दी है व तदनुसार ही तत्त्व को उपोदय कहा है। नयों की यह विवक्षा मूलाचार में दृष्टिगोचर नहीं होती। इससे सिद्ध है कि मलाचार के कर्ता प्रा० कुन्दकुन्द से भिन्न हैं, दोनों एक नहीं हो सकते। यह अवश्य प्रतीत होता है कि मूलाचार के रचयिता ने यथाप्रसंग आवश्यकतानसार आचार्य कन्दकन्द के ग्रन्थों से अथवा परम्परागत रूप में कुछ गाथाओं को अपने इस ग्रन्थ में आत्मसात किया है तथा अनेक गाथाओं में उन्होंने कुन्दकुन्द-विरचित गाथाओं के अन्तर्गत शब्दविन्यास को भी अपनाया है। जैसे—संसारभावनाएँ कुन्द० गा० २४ व मूला० गा० १३ आदि । इससे सम्भावना यह की जाती है कि वे कुन्दकुन्द के पश्चात् हुए हैं। पर सम्भवतः वे उनके १००२०० वर्ष बाद ही हुए हैं, अधिक समय के बाद नहीं। १. गा० ६८.८२ २. मूलाचार, गा० ६०-६४ ६६६ / षट्खण्डागम-परिशीलन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001016
Book TitleShatkhandagama Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1999
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Ethics
File Size18 MB
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